
आजकल समाज में धर्म को लेकर कोई भी, कुछ भी टिप्पणी कर देता है और आज ही नहीं अनंत काल से भी स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए समाज में कोई भी कहानी स्थापित की जाती रही है l
फिर भी हम सभी ने “धर्म, मत, पंथ और संप्रदाय” नाम के शब्द तो सुने ही हैं लेकिन ये सब हैं क्या? संभवतः इससे हम सभी अभिनज्ञ ही हैं
तो चलो इस विषय को लेकर एक प्रयोग करते हैं :-

स्वयं को धर्म कहने वाले सभी मत, पंथ और संप्रदायों के 50-50 लोगों को एक स्थान पर बुला कर सभी से 2 प्रश्न पूछेंगे और वे प्रश्न होंगे :-
1. तुम्हारी धर्म की पुस्तक कौन सी है ?
2. तुम किसकी पूजा करते हो ?
अब हमें जो उत्तर में मिलेंगे वो इस प्रकार होंगे :-










यह तो पक्का है कि हिन्दुओं के अतिरिक्त शेष सभी समूहों का उत्तर एक ही होगा क्योंकि जब हिंदुओं से यही प्रश्न पूछा जाए तो पहले प्रश्न का उत्तर होगा :-
श्रीमद्भगवद गीता, रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद, शिवपुराण, विष्णु पुराण, गरुण पुराण, हनुमान चालीसा आदि आदि
और दुसरे प्रश्न का उत्तर होगा:-
हनुमान, श्रीराम, श्रीकृष्ण, राधा कृष्ण, शिवजी, विष्णु जी, शेरावाली माता, काली माता, दुर्गा माता, काली भवानी, काल भैरव, महाकाल, रविदास, कबीरदास, यहां तक की चार्वाक ऋषि अंबेडकर और पेरियार भी इनमें मिल जायेंगे।


अब इससे सिद्ध क्या हुआ….?
यहाँ हिन्दुओं के अतिरिक्त सभी समूहों के उत्तर एक ही जैसे थे क्योंकि वे केवल एक ही व्यक्ति विशेष के विचारको मानने वाले लोग हैं जैसे कि:-
“मुहम्मद का मत इस्लाम बन गया
ईसा का मत ईसाइयत बना”
गुरु नानकदेव जी की शिक्षा सिख संप्रदाय बनी किंतु संकट काल में इसी में से खालसा पंथ का उद्भव हुआ
तीर्थंकर ऋषभदेव ने जैन मत को स्थापित किया
और गौतम बुद्ध सिद्धार्थ ने बौद्ध मत को स्थापित किया”
किन्तु हिन्दुओं के इतने उत्तर ???
वह इसलिए कि एक समाज ने विभिन्न उपासकों ने, विभिन्न संस्कृतियों ने, और विभिन्न मर्यादाओं ने मिलजुल कर एक कुछ नियमों की स्थापना की थी जिसे धर्म की संज्ञा दी गई l इस समाज में सभी का सम्मान है और सभी एक दुसरे के पूरक हैं इस समाज ने धरती, आकाश, नदी, पर्वत, अग्नि, जल, वायु, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पेड़-पौधों, पशु-पक्षी को भी उतना ही महत्व दिया जितना इस सृष्टि में मनुष्य का है l
किन्तु यदि इतिहास पर दृष्टी डाली जाये तो मूल धर्म से कट कर ये जितने भी मत-पंथ-संप्रदाय उत्पन्न हुए कुछ सफल होने अर्थात अनुयायियों की संख्या बढ़ने पर वे उस मूल को ही नष्ट करने के प्रयास में जुट गए जिसमें से वे उपजे थे l
उदहारण के लिए यहूदियों से निकले इस्लाम और ईसाइयत ने यहूदियों पर कितने अत्याचार किये, उनकी निर्मम हत्याएं की गईं और वे शेष बचे यहूदी विश्व भर में अपने प्राणों को बचाए घूमते रहे l
सामाजिकता और एकात्मता का भाव भरे हिन्दू आपको मस्जिद, मजारों, दरगाहों, गुरुद्वारों, चर्चो, गिरिजाघरों, जैन मंदिरों और बौद्ध विहारों में माथा टेकते मिल जायेंगे और उन्हीं हिन्दुओं के घरों में इनके सभी पूजनियों के चित्र मिल जायेंगे लेकिन इन मत पंथ और सम्प्रदायों के अनुगामी स्वयं को हिन्दू न मान कर स्वयं को अलगही नस्ल का बताते हैं और मनघडंत कहानियों और धारणाओं के द्वारा हिंदुत्व का अपमान करने का अवसर खोजते रहते हैं क्योंकि जब तक सत्संग होता है तब तक अनुयायियों की संख्या चंदा निर्धारित करती है और बाद में यही सत्संग जब स्वयं को धर्म कहने लगता है तो यह एक राजनैतिक युद्ध का रूप ले लेता है जैसे की 1400 साल पहले का इस्लाम और 2024 साल पहले की ईसाइयत विश्व पर अपना अपना झंडा लहराकर राज करना चाहते थे और आज भी धर्म परिवर्तन करवाकर अपनी संख्या बढ़ाने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रहे हैं दूसरी ओर सिखों को भी अपने लिए “खालिस्तान” चाहिए ।
“यह जो अलगाव का कीड़ा होता है न, यह बहुत जोर से काटता है और नशीला भी होता है जिसका नशा, नाश करके ही उतरता है ।”
इसी प्रकार आजकल के “राधा-स्वामी, राम-रहीम, रामपाल, ब्रह्मकुमारी का लेखराज आदि आजकल सत्संग चलाते हैं और तो और रामपाल और ॐ शांति वाले दादा लेखराज ने तो स्वयं को भगवान घोषित कर दिया है जैसे पैगम्बर मोहम्मद ने इस्लाम की स्थापना के समय स्वयं को अल्लाह का दूत घोषित कर दिया था l हो सकता है भविष्य में ये भी स्वयं को धर्म कहने लगें ।