शब्दों के षडयंत्र

Narratives by Books in education System

       किसी भी देश कि भाषा और उस भाषा के शब्दकोश में उपस्थित शब्द उस समाज का चरित्र और मानसिकता के विषय में सहज ही बता देते हैं l हिन्दी तथा अन्य सभी क्षेत्रीय भारतीय भाषाएँ संस्कृतनिष्ठ हैं जिनका एक विशाल शब्दकोश है l किन्तु वर्तमान समय में उन भाषाओँ में अंग्रेजी और उर्दू शब्दों तथा उक्तियों का प्रयोग करते हैं क्योंकि कुछ शब्द शिक्षा के माध्यम से उनमें मिश्रित किये गए, कुछ प्रशासनिक व्यवस्थाओं और कुछ विज्ञापनों, समाचारों, चलचित्रों के द्वारा l इन शब्दों का प्रभाव हमारे चेतन और अवचेतन मन पर क्या पढ़ रहा है उसका हमें पता ही नहीं है और तो और हमारे द्वारा बोले गए बहुत से शब्द तो ऐसे अनिष्टकारी हैं जो हमारी पहचान ही बदल देते हैं l
      उदहारण के लिए हम शिक्षा व्यवस्था में गढ़े गए कुछ शब्दों और उनके भावार्थ को ही देखते हैं :-
– आदिवासी –
      आदिवासी शब्द प्राय उन लोगों के लिए प्रयोग होता है जो पर्वतीय अथवा वन क्षेत्र में रहते हैं l जबकि इन दोनों के लिए हिन्दी शब्दकोश में गिरिवासी और वनवासी शब्द उपलब्ध हैं फिर इन्हें आदिवासी कहने का क्या अर्थ ? अर्थ यह है कि भारत में अंग्रेजों ने एक लिखित संकल्पना स्थापित करने का प्रयास किया था जिसे “आर्यन थ्योरी” कहा गया l इसे उस समय के भारतीय जनमानस ने अस्वीकार कर दिया था फिर भी भारत में ही उपस्थित कुछ विदेशी विचारधारा को मानने वाले समूह उनका ढोल आज तक बजा रहे हैं इस आदिवासी शब्द कि उत्पत्ति भी इसीलिए हुई है क्योंकि आदिवासी का अर्थ है वे ही आदिकाल से रहने वाले लोग हैं और बाकी सब बाहर से आये हैं l आज से सौ वर्ष बाद इसी आदिवासी शब्द के आधार पर अंग्रेजों द्वारा स्थापित “आर्यन थ्योरी” को सत्य सिद्ध कर दिया जायेगा l
– दलित –
       इसी प्रकार भारतीय वैदिक व्यवस्था में समाज को सुचारू रूप से चालाने के लिए वर्ण व्यवस्था स्थापित कि गई जिसे चार वर्णों में बांटा गया था l १. ब्राह्मण 2. क्षत्रिय ३. वैश्य और ४. शुद्र l इन सभी को मिलाकर एक श्रेष्ठ समाज कि स्थापना हुई l इनमें सभी के अपने-अपने गुण थे l जहाँ ब्राह्मण शांत स्वाभाव के थे, वहीँ क्षत्रिय उग्र स्वभाव के, वैश्य अर्थ व्यवस्थाओं में निपुण थे तो शुद्र उत्पाद कौशल (Product skills) में l अब शूद्रों को एक नाम दिया गया “दलित” अर्थात दले गए लोग या फिर कुचले गए शोषित लोग जबकि वर्ण व्यवस्था में केवल शूद्र ही हस्तकौशल वाले लोग थे और ये निर्धन भी नहीं थे किन्तु जब अंग्रेजों ने भारतीय उद्योगों पर स्वामित्व स्थापित करना आरम्भ किया तो लोहार, कुम्हार, बढ़ई, जुलाहे, चर्मकार (चमार), नाई (जो कि छोटी मोटी शल्य चिकित्सा भी कर लेते थे और सौन्दर्य प्रसाधनों की औषधियों के जानकार भी होते थे)  आदि के उद्योगों को भारी क्षति पहुंची किन्तु वर्तमान में इनके मन में दलित शब्द का प्रभाव डाल कर इनमे अलगाव कि भावना पैदा कि जा रही है जबकि शुद्र व्यवस्था में “सुनार” भी आते हैं अंग्रेज उनके व्यवसाय को प्रभावित न कर सके इसलिए आज वे दलित कि गिनती में नहीं हैं l
– आदमी, इन्सान –
       इसी प्रकार हम आजकल की आम बोलचाल कि भाषा में स्वयं को “आदमी, इन्सान अथवा मनुष्य” कहते हैं इनमे जो शब्द सबसे कम या फिर न के बराबर उपयोग होता है वह शब्द है “मनुष्य”! शिक्षा व्यवस्था में हमें आदमी, इन्सान और मनुष्य एक दुसरे के पर्यायवाची शब्द बताये गए हैं किन्तु ये एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द नहीं है तीनों शब्दों में पहचान का अंतर है वह क्या है उसे जानते हैं –
       विश्व की सभी मान्यताओं के जो आदिपुरुष हुए हैं अर्थात उस व्यवस्था या समाज के प्रथम पुरुष उन्हें हम अपना पूर्वज मानते हैं और स्वयं को उनकी संतान जैसे कि बुद्ध को मानने वाले बौद्ध कहलाते हैं क्योंकि बुद्ध बौद्ध शाखा के प्रथम पुरुष था इसी प्रकार इस्लाम का आदिपुरुष “आदम” था जिसकी संताने स्वयं को आदमी कहती हैं और ईसाइयत का प्रथम पुरुष “ईसा मसीह” इसलिए ईसा कि संताने भारत में स्वयं को इन्सान कहती है किन्तु समस्त हिन्दू समाज के आदिपुरुष मनु महाराज हैं उनकी संतान मनुष्य हुई, मानव हुईं l अब तक अनजाने में, आधुनिकता में या फिर थोड़ी चमक मारते हुए हमने न जाने कितनी बार अपने पूर्वजों को अपमानित किया होगा l इनके भाव देखें तो इन तीनो शब्दों में से केवल दो शब्दों में ही दया के भाव वाले शब्द बन सके वे शब्द हैं मनु से मानवता, मनुष्यता और ईसा से इंसानियत कभी सोचा है कि आदमियत शब्द क्यों नहीं बना क्योंकि क्रूरता ही इस्लाम का अंग है जिसमें केवल स्वयं के लिए ही दया है किसी अन्य के लिए नहीं l
– दक्षिण भारतीय –
       जब भारत एक है और राज्यों के अनुरूप नाम हैं जैसे पंजाबी, हिमाचली, कश्मीरी, पहाड़ी, बिहारी, कन्नड़, मराठी, मद्रासी, गुजराती, राजस्थानी, केरली आदि फिर भी एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों को अलग से दक्षिण भारतीय या South Indians बोलने का क्या अर्थ है? तो इसका अर्थ है अलगाव का भाव ! क्योंकि अंग्रेजों कि “Aryan theory” में यह कहा गया था कि आर्यों ने उत्तर से आक्रमण किया था तो यहाँ के द्रविड़ दक्षिण कि ओर चले गए थे l सामान्यतः हम सभी के मन में उनको अलग मानने के कुछ न कुछ भाव तो अवश्य ही पैदा हो गए होंगे किन्तु इतिहास में जब भी भारत में धर्म और संस्कृति का हास हुआ तो धर्म और संस्कृति को आश्रय और चेतना वहीँ मिली जिस क्षेत्र को हम एक अलग दृष्टी से देखते हैं l
-बनिया, ठाकुर, पण्डित –
       बनिया शब्द वर्ण व्यवस्था के वैश्य वर्ण के लिए संबोधित किया जाता है इस बनिया शब्द को सुनते ही हम अपने मस्तिष्क में एक स्वार्थी, कुटिल, कंजूस और गरीबों का शोषण करने वाले व्यक्ति कि छवि देखने लगते हैं किन्तु यह छवि हमारे दिमाग में कैसे बनी ? यह छवि हमें छोटी छोटी कथा कहानियां, कुछ उक्तियाँ और चलचित्रों के माध्यम से मिली क्योंकि हमने बड़े आनंद से ये सब देखा या सुना किन्तु उसकी एक छाप हमारे अवचेतन मन पर धीरे धीरे अपना स्वरुप बनाती गई इसी प्रकार दुष्ट ठाकुर और लोभी और चरित्रहीन पण्डित l
कहावतें
      इसी प्रकार कुछ कहावतें गढ़ी गयीं जैसे –
– उर्दू में “एक तीर दो शिकार”, अंग्रेजी में “kill two birds with one stone” जबकि हिन्दी में यह कहावत है “एक पंथ दो काज” l यहाँ उर्दू और अंग्रेजी कि उक्तियों के भाव तो हिन्दी कि उक्ति के कार्य सिद्ध करने के ही बताये जाते हैं किन्तु कार्य को करने की शैली को शिकार कहना उचित है क्या ?

– उर्दू में मुहब्बत और जंग में सब जायज होता है, अंग्रेजी में Everything is fair in love and war. जबकि हिन्दी में ऐसी कोई कहावत नहीं है यहाँ भारतीय परम्पराओं में तो युद्ध भी नियमों पर लड़ेे जाते रहे हैं l
“मुल्ला कि दौड़ मस्जिद तक” – यह कहावत तो लोगों के मुंह पर इतनी चढ़ी कि हिन्दू भी स्वयं को मुल्ला संबोधित कर देते हैं क्या हिन्दू की दौड़ मन्दिर तक नहीं होती ? यहाँ यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि धार्मिक मामलों मे केवल मुसलमान ही अपने नियमों का पालन करता है अन्य कोई नहीं, और तो और इससे लोगों की यह धारणा भी बन गयी है कि मुसलमान अपने ईमान का पक्का होता है जबकि ऐसा नहीं है l


“बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना” – वाह क्या अमर्यादित कहावत है जबकि हिन्दू शास्त्रों में “मातृवत परदारेषु, परद्रव्य लोष्टवत” (पराई स्त्री माता के सामान है और दुसरे का धन मिट्टी के सामान है) का बहुत जोर से उद्घोष किया गया है l
“राम राम जपना, पराया माल अपना” यहाँ लूट-खसोट कि उस संस्कृति का भाव हमारे मनों पर हावी होता जिसका हमारी संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है l
– “घर की मुर्गी दाल बराबर” – क्या समस्त भारतीय समाज माँसाहारी है कहने को तो भारतीय लोकोक्ति “घर का जोगी जोगना, बहार का सिद्ध” भी है l

       महाकवि रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” में लिखते हैं कि “यूरोपीय तर्क आधुनिक बुद्धि का सम्मोहन शास्त्र है इसका उपयोग वे तो करते ही हैं जिनका उद्देश्य काटना है किन्तु यह पसंद उनको भी आता है जो काटे जाते हैं l”
       भारतवासी अब जागरूक हो रहे है और राष्ट्र और संस्कृति के विषय में हो रहे कुतर्कों के तर्कपूर्ण उत्तर दे रहे हैं विदेशी शक्तियों के बड़े बड़े वैश्विक अभियान इस भारतभूमि पर आकर समाप्त हो गए l
       भारतीय संस्कृति एक ऐसा वृक्ष है जहाँ जब जैसी आवश्कता होती है तब यह ऐसे ही फल दे देती है l जब समाज को साहित्य कि आवश्यकता थी तो उस समय बड़े बड़े विद्वान, कवि और संतों ने अपनी वाणी का अमृत बरसाया, जब शौर्य की आवश्यकता थी तब वीरों ने भी जन्म लिया और जब बलिदानों कि आवशकता पड़ी तब हँसते हँसते गोली खाने वाले और फांसी चढ़ने वालों ने भी जन्म लिया और इस राष्ट्र, धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिए सभी वर्णों का सामान योगदान रहा यहाँ तक कि इस देश में नारियों की भी शौर्यगाथाएं इतिहास आज तक गा रहा है और ऐसी गाथाएं विश्व में और कहीं नहीं मिलेंगी l

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