ताजमहल : मकबरा या मन्दिर ?

       जैसा की हम जिज्ञासु प्रवृति के लोग जानते ही हैं कि भारत में भारतीय इतिहास को किस प्रकार छुपाया गया है l सत्य के उपासकों के देश भारत में कई सभ्यताए आई और यहीं दफ़न हो गईं किन्तु बीती शताब्दियों में जो सभ्यताएं भारत में आईं वे सभ्यताएं बर्बर थीं उनका उद्देश्य केवल अधिकार करना या राज करना ही नहीं था उनका उद्देश्य किसी भी देश की और वहां के रहने वालों की सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं को नष्ट कर अपनी संस्कृति को वहां के लोगों पर थोपना था, इसके लिए उन्हें जो करना था वह था उस स्थान के लोगों में एक हीन भावना उत्पन्न कर उनको नीचा दिखाना और अपनी श्रेष्ठता दिखा कर उन्हें मतांतरित करना l इसके लिए उन्होंने छल, बल, लोभ-लालच, अत्याचार, हत्याएं, बलात्कार, औरतों को अपनी रखैल बना कर रखना और उन औरतों को गुलामों की तरह बाजारों में बेचना l यह सब करने के पीछे एक ही मतव्य था कि इस दुनिया में जो भी वस्तु है वह सिर्फ इस्लाम की है और उसे हम लेकर ही रहेंगे l हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए आज के समय में मुसलमान कुछ निश्चित पंक्तियाँ कहते हुए मिल जायेंगे कि “क्या था तुम्हारे देश में ? हमने ताजमहल बनाया, हमने कुतुबमीनार बनाया वगैरा वगैरा” और यदि कहीं बल और पराक्रम की चर्चा हो रही होती है तो ये कहते हैं कि ” हमने तुम्हारी औरतों अपने हरम में लौंडी बनाकर रखा था, तुम्हारी औरतों को दो-दो कौड़ी में बेचा था l और यह सब किसी न किसी रूप में आज भी हो रहा है l
      इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए हम भारत के एक प्रसिद्ध स्थल “ताजमहल” और उसके इतिहास पर चर्चा करेंगे l

क्या सन् 1630 में ताज महल के निर्माण आरम्भ होना सम्भव था?

इलियट व डौसन का इतिहास, भाग  7, पृष्ठ 19-25, के अनुसार शाहजहां का शाही इतिहासकार मुल्ला हमीद लाहौरी सन् 1630 का, अर्थात् ताज महल के निर्माण आरम्भ होने वाले वर्ष का विवरण इस प्रकार से देता हैः

      “वर्तमान वर्ष में भी सीमान्त प्रदेशों में अभाव रहा खास तौर पर दक्षिण और गुजरात में तो पूर्ण अभाव रहा। दोनों ही प्रदेशों के निवासी नितान्त भुखमरी के शिकार बने। रोटी के टुकड़े के लिए लोग खुद को बेचने के लिए भी तैयार थे किन्तु खरीदने वाला कोई नहीं था। समृद्ध लोग भी भोजन के लिए मारे-मारे फिरते थे। जो हाथ सदा देते रहे थे वे ही आज भोजन की भीख पाने के लिए उठने लगे थे। जिन्होंने कभी घर से बाहर पग भी नहीं रखा था वे आहार के लिए दर-दर भटकने लगे थे। लंबे समय तक कुत्ते का मांस बकरे के मांस के रूप में बेचा जाने लगा था और हड्डियों को पीसकर आटे में मिला कर बेचा जाने लगा था। जब इसकी जानकारी हुई तो बेचने वालों को न्याय के हवाले किया जाने लगा, अन्त में अभाव इस सीमा तक पहुँच गया कि मनुष्य एक-दूसरे का मांस खाने को लालयित रहे लगे और पुत्र के प्यार से अधिक उसका मांस प्रिय हो गया। मरनेवालों की संख्या इतनी अधिक हो गई कि उनके कारण सड़कों पर चलना कठिन हो गया था, और जो चलने-फिरने लायक थे वे भोजन की खोज में दूसरे प्रदेशों और नगरों में भटकते फिरते थे। वह भूमि जो अपने उपजाऊपने के लिए विख्यात थी वहाँ कहीं उपज का चिह्न तक नहीं था…। बादशाह ने अपने अधिकारियों को आज्ञा देकर बुरहानपुर, अहमदाबाद और सूरत के प्रदेशों में निःशुल्क भोजनालयों की व्यवस्था करवाई।”
     सीधी सी बात है कि जब बकरे के मांस के नाम पर कुत्ते का मांस और आटे के स्थान पर पिसी हड्डियाँ बेची जा रही हों तथा मनुष्य मनुष्य का मांस भक्षण कर रहा हो तो ऐसी स्थिति में बीमारियों का भी भयंकर प्रकोप भी हुआ ही होगा और अनगिनत लोग भूख से मरने के साथ ही साथ बीमारियों से भी मरे होंगे।
     उपरोक्त विवरण “वर्तमान वर्ष में भी…” से शुरू होता है इसका स्पष्ट अर्थ है कि शाहजहाँ के शासनकाल में जब-तब अकाल पड़ते ही रहते थे। ऐसे भीषण दुर्भिक्ष की स्थिति में ताज महल का निर्माण करने के लिए मजदूर कहाँ से आ गए? क्या सन् 1630 में ताज महल के निर्माण आरम्भ होना सम्भव था?

ऐतिहासिक तथ्य :- बादशाहनामा के पृष्ठ 402-403 के लाइन 21 से 41 तक के निम्न चित्र में ताज महल को शाहजहाँ के द्वारा राज जयसिंह से प्राप्त करने का वर्णन है”

हिन्दी अनुवादः-
      शुक्रवार 15 जमा-दि-उल-अव्वल को, पवित्रता के राज्य के यात्री, हज़रत मुताज़ुल ज़मान, जिसे कि अस्थाई रूप से दफना दिया गया था, के पवित्र शव को, शाहजादा मोहम्मदशाह, शुजा बहादुर, वज़ीर खां और सातुन्निसा खानम – जो मृतक की मनोदशा से घनिष्ठ रूप से सुपरिचित और उस बेगमों की बेगम के विचारों को भलीभाँति जानने वाली थी  – के साथ राजधानी अकबराबाद (आगरा) लाया गया और उसी दिन फकीरों तथा जरूरतमंदों को मुद्राएँ बाँटे जाने का आदेश दिया गया। विशाल नगर (आगरा) के दक्षिण के में स्थित भव्य, सुन्दर हरित उद्यानों से घिरे, केन्द्रीय भवन – जिसे कि राजा मानसिंह के प्रासाद के नाम से जाना जाता था जो अब उत्तराधिकार के रूप में राजा मानसिंह के पौत्र जयसिंह के अधिकार में था – को जन्नतनशीन बेगम को दफनाने के चुना गया था। यद्यपि राजा जयसिंह अपने पूर्वजों के उत्तराधिकार तथा सम्पदा को बहुमूल्य मानता था, तथापि वह उस सम्पदा को बादशाह शाहजहाँ को बिना किसी मूल्य के देने के लिए सहमत था फिर भी धार्मिक शुद्धता तथा सतर्कता को ध्यान में रखते हुए उसे (जयसिंह को) उस भव्य प्रासाद (आली मंज़िल) के बदले में शरिफाबाद दिया गया। महानगरी (आगरा) में शव के पहुँचने के बाद अगले वर्ष शाही फरमान के अनुसार अधिकारियों द्वारा जन्नतनशीन बेगम के सुन्दर शरीर को दफना दिया गया। उस धर्मनिष्ठ महिला का शरीर संसार की आँखों से ओझल हो गया और वह गुम्बदयुक्त भव्य भवन (इमारत-ए-आलीशान वा गुम्बद) एक शानदार गगनचुम्बी मकबरे में बदल गया।

English Translation :-
      “Friday, 15th Jamadiulawal, the sacred dead body of the traveller to the kingdom of holiness Hazrat Mumtazul Zamani, who was temporarily buried, was brought, accompanied by Prince Mohammad Shah, Suja bahadur, Wazir Khan and Satiunnesa Khanam, who knew the temperament of the deceased intimately and was well versed in view of that Queen of the Queens used to hold, was brought to the capital Akbarabad (Agra) and an order was issued that very day coins be distributed among the beggers and fakirs. The site covered with a majestic garden, to the south of the great city (of Agra) and amidst which the building known as the palace of Raja Man Singh, at present owned by Raja Jai asingh, grandson of Man Singh, was selected for the burial of the Queen, whose abode is in heaven. Although Raja Jai Singh valued it greatly as his ancestral heritage and property, yet he agreed to part with it gratis for Emperor Shahjahan, still out of sheer scrupulousness and religious sanctity, he (Jai Singh) was granted Sharifabad in exchange of that grand palace (Ali Manzil). After the arrival of the deadbody in that great city (of Agra), next year that illustrious body of the Queen was laid to rest and the officials of the capital, according to royal order, hid the body of that pious lady from the eyes of the world and the palace so majestic (imarat-e-alishan) and capped with a dome (wa gumbaje) was turned into a sky-high lofty mausoleum”.

ताजमहल में बने इस डिजाइन पर गौर करें। कमल के भीतर त्रिशूल स्पष्ट दिखाई दे रहा है। कमल और त्रिशूल दोनों ही वैदिक प्रतीक हैं।
ताज महल के एक प्रवेशद्वार में बना चित्र जिसमें गणेश के प्रतीक के दोनों ओर जल छोड़ते हुए हाथी के सूँड़ दिखाई दे रहे हैं।
ताज महल में स्थित गलियारा, बरामदा और अष्टकोणीय बुर्ज जो विशिष्ट हिन्दू वास्तु के उदाहरण हैं। ऐसे गलियारे, बरामदे और बुर्ज अनेक हिन्दू मन्दिरों में देखे जा सकते हैं।
ताज महल यमुना किनारे की ओर का दृश्य। चित्र में दिखाई देने वाले 22 कक्षों में प्रत्येक के तोरणद्वार के ऊपर दोनों ओर गोलाकार संगमरमर पर कमल फूल के चित्र हैं।
ताज महल के गुंबद का का चित्र जिसके शिखर को लोग आँख बंद करके मुस्लिम प्रतीक चाँद-तारा समझ लिया करते हैं जबकि वह त्रिशूल की आकृति का कलश है।
ताजमहल के एक लकड़ी वाले दरवाजे का चित्र। सन् 1974 में अमेरिकन प्रोफेस मार्विन मिल्स (Marvin Mills) ने काल निर्धारण के उद्देश्य से गुप्त रूप से इस दरवाजे के लकड़ी का सैम्पल ले लिया था। रेडियोकार्बन पद्धति से जाँच करने पर वह शाहजहाँ के काल से लगभग 300 साल साल पुराना पाया गया। इस जानकारी के बाद से यह दरवाजा ईंटों की दीवार से चुनवा दिया गया था।
ताज महल किंवदन्ती पर आधारित एक पुरातात्विक दृष्टि
ताजमहल, Tajmahal, आगरा, Agra

रोफेसर मार्विन एच. मिल्स (Professor Marvin H. Mills)
के लेख “AN ARCHITECT LOOKS AT THE TAJ MAHAL LEGEND” के संक्षिप्तीकरण के साथ हिन्दी भावानुवाद

लेखकः प्रोफेसर मार्विन एच. मिल्स (Professor Marvin H. Mills), प्रैट इंस्टीट्यूट, न्यूयार्क (Pratt Institute, New York)

      अपनी पुस्तक TAJ MAHAL-THE ILLUMINED TOMB (ताजमहल – एक दिव्य मकबरा) में वेन एडीसन बेग्ले और जियाउद्दीन अहमद देसाई (Wayne Edison Begley and Ziyaud-Din Ahmad Desai) ने समकालीन स्रोतों से प्राप्त और कई चित्रों, ऐतिहासिक विवरणों, शाही पत्रों आदि से संवर्धित की गई सराहनीय जानकारी दी है।
       विद्वानों तथा ताजमहल के उद्गम, विकास तथा उसके आसपास के हालात के विषय में उत्सुकता रखने वाले जनसाधारण के लिए यह उनकी बहुमूल्य सेवा है।
       
किन्तु उनका यह सकारात्मक योगदान विश्लेषण और व्याख्या की एक ऐसी रूपरेखा के अन्तर्गत है जो ज्ञानोदय के सम्भाव्य स्रोत को विकृत करता है और ऐसी गलत सूचना एवं कपोल कल्पना को प्रोत्साहित करता है जो इस विषयमें सैकड़ों वर्षों में प्राप्त पाण्डित्यपूर्ण जानकारी को हानि पहुँचाता है, अतः उनके द्वारा प्रदत्त सूचना ताजमहल के मूल स्रोत की सत्यता को दुरूह बनाती है। कालांकित शिलालेखों को विशुद्ध मानना और शाही इतिहास लेखन को वास्तविक इतिहासकारों का कथन समझना उनके द्वारा की गई दो प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ हैं।
       
एक वास्तुविद के रूप में मेरा लेखकों से मुख्य तर्क है कि उन्होंने अत्यन्त संक्षिप्त समय-सीमा को सहजता से स्वीकार लिया है, वे मानते हैं कि मुमताज़ के पहले उर्स (वर्षगाँठ) तक ताजमहल का ढाँचा अस्तित्व में आ चुका था और उसके मुख्य भवन का निर्माण हो चुका था। निर्माण प्रक्रिया, जिसमें कि पर्याप्त समय लगता है, को कुछ ही महीनों में समेट दिया गया है। वे उपलब्ध तथ्यों पर निर्भर होने को न्यायसंगत समझते हैं, किन्तु निर्माण की वस्तुनिष्ठ आवश्यकताओं पर गौर करने में असफल रह जाते हैं। वे कहते हैं कि ताज के निर्माण से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर लाखों शाही अभिलेख तथा दस्तावेज प्रतिवर्ष अवश्य बने होंगे, जिनके प्राप्त न हो पाने पर उन्हें अफसोस है। वे यह नहीं मानते कि उन अभिलेखों, दस्तावेजों आदि की अनुपल्बधता इसलिए है क्योंकि उन्हें बनाया ही नहीं गया था। न ही वे यह विचार करते हैं कि ताजमहल को किसी और ने कभी और बनवाया था तथा शाहजहां ने इस विषय में कपट किया था। बावजूद इन बातों के वे तो यही दर्शाते हैं कि शाहजहां शाही अभिलेखों पर सावधानीपूर्क निगरानी रखता था।
       
“ऐतिहासिक सच्चाई को तोड़ने-मरोड़ने के लिए शायद शाहजहां खुद ही
जिम्मेदार था। सच्चाई शाहजहां को अयोग्य करार दे सकती थी और यह बात शाहजहां को सहन नहीं थी। इसी कारण से इतिहास में ऐसा कोई भी बयान नजर नहीं आता जो बादशाह या उसकी नीतियों की आलोचना करे, यहाँ तक कि उसकी सेना की हार को भी युक्तिसंगत बना दिया गया ताकि बादशाह पर किसी प्रकार का दोषारोपण न हो सके। … बादशाह की असंयत प्रशंसा की ऐसी पराकाष्ठा की गई है कि प्रतीत होने लगता है वह सामान्य मनुष्य होने की अपेक्षा देवता था।”
       
शाही इतिहासकारों द्वारा सावधानीपूर्वक इतिहास के संपादन और दस्तावेजों के महान कमी के बाद भी सौभाग्य से हमें बादशाह के द्वारा उसके आसपास के क्षेत्र में स्थित अम्बेर के शासक राजा जय सिंह, जिससे कि बादशाह ने ताज की सम्पत्ति का अधिग्रहण किया था, को जारी किए गए चार फर्मान मिल जाते हैं। इन फर्मानों, शाही इतिहासकारों और एक यूरोपीय यात्री के सैर पर आने के आधार पर हमें ज्ञात होता है किः
(i) 17 जून 1631 को मुमताज़ की मृत्यु हुई और उसे बुरहानपुर में अस्थाई रूप से दफनाया गयाl
(ii) उसके शव को खोदकर निकाला गया तथा 11 दिसम्बर 1631 को आगरा ले जाया गयाl
(iii) 8 जनवरी 1632 को उसे ताज के मैदान में कहीं पर पुनः दफनाया गया और
(iv) यूरोपीय यात्री पीटर मुंडी (Peter Mundy) के द्वारा 11 जून 1632 को शाहजहां के अपने काफिले के साथ आगरा वापसी को देखा गया।
       
पहला फरमान 20 सितंबर 1632 को जारी किया गया जिसमें बादशाह ने राजा जयसिंह पर दबाव डाला था कि वह कब्रगाह अर्थात् ताज के मुख्य भवन की आन्तरिक दीवारों के पलस्तर के लिए संगमरमर का लदान जल्दी करे। स्वाभाविक है कि वहाँ पर एक भवन पहले से ही था जिसे कि परिष्कृत किया जाना था। आखिर इसमें कितना समय लगना था?
       
प्रत्येक सफल भवन निर्माण को एक “सूक्ष्म मार्ग” से गुजरना पड़ता है। निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ करने के पहले के सामान्य सोपान होते हैं जिनके लिए न्यूनतम समय की आवश्यकता होती है। चूँकि मुमताज़ (जो कि पिछले तेरह बच्चों को जन्म देते समय हर बार बच गई थी) की मृत्यु अपेक्षाकृत युवावस्था में हो गई थी हम मान सकते हैं कि शाहजहां उसके आकस्मिक निधन के लिए तैयार नहीं था। इस आघात के दौरान उसे मुमताज़ को समर्पित करने के लिए उसे एक विश्व स्तर कब्रगाह बनाने का निश्चय करना पड़ा होगा, एक वास्तुकार (जिसके होने या न होने पर अभी भी सन्देह है) चयनित करना पड़ा होगा, वास्तुकार के साथ मिलकर भवन के बनावट का निश्चय करना पड़ा होगा, नक्शानवीसों को तैयार करना पड़ा होगा, भवन की यांत्रिक संरचना के लिए इंजीनियर खोजना पड़ा होगा, नक्शों की जाँच करनी पड़ी होगी, हजारों मजदूरों और ठेकेदारों को खोजने की व्यवस्था करनी पड़ी होगी, एक जटिल कार्यक्रम बनाना पड़ा होगा। यह रहस्यमय है कि इतने विस्तृत प्रक्रिया से सम्बन्धित कोई भी दस्तावेज बच ही नहीं पाया, सिवा चार फर्मानों के।
       
हम नहीं मान सकते कि ताज परिसर को इमारतों तथा भूनिर्माणों के बाद अतिरिक्त रूप से बनवाया गया था, क्योंकि परिसर एक आवश्यकता थी। उसे एकीकृत रूप से ही डिजाइन किया गया था। यह बात बेग्ले और देसाई के ग्रिड प्रणाली के इस विश्लेषण से, कि क्षैतिज तथा ऊर्ध्व रूप से त्रिआयामी बनाने हेतु पूरे काम्प्लेक्स को एक डिजाइनर के द्वारा नियोजित किया गया था, स्पष्ट है। यदि किसी को यह पता न हो कि ताज मात्र एक औपचारिक कब्रगाह है तो वह यही विश्वास करेगा कि ताज को एक ऐसे महल के रूप में डिजाइन किया गया था जिसमें आनन्ददायक हवा आने और रमणीय जलमार्गों तथा मनमोहक वाटिका का प्रावधान हो। हो सकता है कि ताज राजा जय सिंह का ही महल हो, जिसे कभी भी नष्ट नहीं किया गया, और शाही आदेश से उसमे मुगल कब्र बना दिया गया। क्या यह नहीं हो सकता?
       
यह मानते हुए कि शाहजहाँ अपनी दिवंगत प्रियतमा का ध्यान रखते हुए परियोजना के आरम्भ के लिए तत्पर कार्यवाही करने के लिए उत्तेजित था, आसानी के साथ अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके अवधारणा से लेकर अवधारणा को कार्यरूप में परिणिति तक कम से कम एक साल के समय की जरूरत तो थी ही। क्योंकि मुमताज़ की मृत्यु जून 1631 में हुई थी, कार्य का आरम्भ जून 1632 में होना था। किन्तु बताया जाता है कि निर्माण कार्य जनवरी 1632 में आरम्भ हो गया था।
       
खुदाई एक अत्यन्त दुर्जेय अथवा साहस तोड़ने वाला कार्य सिद्ध हुआ होगा। पहले राजा जय सिंह के महल को तोड़कर गिराना आवश्यक था। मिर्जा गज़िनी (Mirza Qazini) और अब्द-अल-हमीद लाहोरी (Abd al-Hamid Lahori) के इतिहास से हमें पता है कि उस सम्पत्ति के अन्तर्गत वहाँ पर एक महल का अस्तित्व था। लाहोरी लिखते हैं:
       
“वृहत नगर के दक्षिण दिशा में प्रतिष्ठायुक्त तथा सुखदाई मैदानी क्षेत्र था जिस पर राजा मान सिंह की हवेली थी तथा उस हवेली पर अब उनके पोते जय सिंह का अधिकार है। उसी स्थान का चयन जन्नतनशीन [मुमताज] की अन्त्येष्टि के लिए किया गया था।” (पृष्ठ 43)
       
मुख्य तथा सहायक भवनों की खुदाई के दौरान खुदाई का यमुना नदी से उत्तर दिशा की ओर दूरी के नाप-जोख के विषय में भी ध्यान रखा गया होगा ताकि खुदाई यमुना में बाढ़ आने पर बह ना जाएँ। अगले चरण रहे होंगे – बड़े पैमाने पर नींव बांधना, आधार रखना, ताज और उसके पूरब तथा पश्चिम के भवनों के लिए चबूतरे, दीवारें, मंच इत्यादि बनाना साथ ही कुएँ वाली इमारत, चारों किनारों की मीनारों, तहखानों के कमरों के लिए नींव बनाना। यदि यह मानें कि ताज परिसर में स्थित सारी इमारतें एक साथ एक ही समय में बनीं, तो सारे परिसर में खुदाई से निकली मिट्टी पत्थरों और भवन निर्माण सामग्री बिखरा पड़ा रहा होगा। इस आकलन के अनुसार भवन निर्माण आरम्भ होने के लिए कम से कम एक और वर्ष की आवश्यकता थी अर्थात इमारतें बनना जनवरी 1634 में शुरू होना था।
       
और यहीं पर समस्या उत्पन्न हो जाती है। मुमताज़ की मृत्यु के सालगिरह पर शाहजहां प्रतिवर्ष ताज में उर्स का आयोजन करता था। पहले उर्स का आयोजन 22 जून 1632 को हुआ। यद्यपि निर्माण कार्य कथित रूप से सिर्फ छः माह पहले ही आरम्भ हुआ था, 374 गज लंबा, 140 गज चौड़ा और 14 गज ऊँचा लाल पत्थर के चबूतरा बन कर तैयार हो चुका था! यहाँ तक कि इस बात पर बेग्ले और देसाई भी किंचित विस्मित हैं।
       
गिराए गई हवेली का मलबा, निर्माण सामग्री, संगमरमर की शिलाएँ, ईंटों के ढेर, हजारों मजदूरों के अस्थाई निवास व्यवस्था, सामान ढोने वाले असंख्य जानवर कहाँ थे?
       
किन्तु जून 1632 तक भौतिक रूप से यह किसी भी प्रकार से सम्भव ही नहीं था कि खुदाई, आधार, नींव बनाने के कार्य पूर्ण हो जाएँ, समस्त भवन निर्माण सामग्री हटा कर मलबा तक साफ कर दिया जाए और उर्स के भव्य आयोजन की तैयारी भी हो जाए। भवन निर्माण प्रक्रिया के परिसाक्ष्य के लिए बेग्ले और देसाई की दृष्टि में यूरोपियन यात्री का शाहजहां के दरबार में होना कम उपयोगी है। किन्तु ताज के स्रोत के लिए उनकी दृष्टि में पीटर मुंडी, जो कि ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनियों का एक एजेंट था, का अत्यन्त महत्व है क्योंकि वह पहले उर्स में उपस्थित था और एक साल बाद दूसरे उर्स में भी उपस्थित हो गया था।
       
यह पीटर मुंडी ही था जिसने 26 मई 1633 को दूसरे उर्स के दौरान कहा था कि उसने मुमताज़ के कब्र के चारों ओर स्वर्णजटित रेलिंग के अधिष्ठापन को देखा था। लेकिन ऐसा कोई तरीका नहीं था कि जनवरी 1632 से मई 1633 के बीच इतनी तेजी के साथ निर्माण कार्य हो जाए कि सम्पूर्ण निर्माण होकर रेलिं लगाया जा सके। रेलिंग हवा में तो खड़ी नहीं हो सकती थी। इसका अर्थ है कि ताज की इमारत पहले से ही वहाँ थी। और निश्चय ही वह भवन अत्यन्त मूल्यवान थी क्योंकि ताज परिसर का मूल्य पचास लाख रुपए बताया गया था जबकि सोने की रेलिंग की कीमत छः लाख रुपए थी। 6 फरवरी 1643 को शाहजहां के द्वारा सोने की रेलिंग को हटा दिया गया और उसके स्थान पर संगमरमर की जाली लगा दिया गया जो कि आज भी देखी जा सकती है।
       
जहाँ तक शाहजहां के द्वारा ताज के अंदरूनी अलंकरण का सवाल है, उसे कौन से परिवर्तन करने पड़े होंगे? परिवर्तन के लिए कुछ आवश्यक कार्यों में से एक कार्य भवन के अभिलेखों, शिलालेखों को बदलना अवश्य ही रहा होगा। भवन के सजावट में सांकेतिक रूप से स्थित जो हिन्दुत्व के सन्दर्भ रहे होंगे उन्हें भी उसे हटाना पड़ा होगा।
       
पुस्तक में दर्शाए गए उदाहरणों दर्शाते हैं कि प्रायः अभिलेख आयताकार फ्रेम में हैं जिन्हें कि, भवन के उन हिस्सों को जिनमें वे लगे हुए हैं बगैर किसी प्रकार के नुकसान पहुँचाए, आसानी के साथ निकाला परिवर्ति किया तथा पुनः लगाया जा सकता है। मेरे विवेक के अनुसार सफेद संगमरमर की पृष्ठभूमि के बीच मटमैले संगमरमर के घेरे में काली लिखावट भवन के सौन्दर्य के लिए अनुपयुक्त हैं। परिवर्तित अभिलेखों को जोड़कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया होगा कि पवित्र कब्रगाह के रूप में वह इमारत, हिन्दू भवन होने के स्थान पर, उसका अपना निर्माण है। आने वाला समय निस्सन्देह सिद्ध कर देगा कि ताज एक हिन्दू भवन है।
       
कब्र पर दिखाई देने वाले 1638-39 दिनांकित नवीन शिलालेखों के आधार पर लेखकगण छः वर्षों के निर्माण की अवधि का अनुमान अनुमान लगाते हैं। मेरे विवेक के अनुसार छः वर्ष का समय अपर्याप्त है। ताज परिसर के उचित निर्माण अवधि के विषय में टैवेर्नियर (Tavernier) के द्वारा अनुमानित बाइस वर्ष के समय को सही माना जा सकता है। यद्यपि वह आगरा में 1640 में आया था और उसने ताज के कुछ मरम्मत कार्य को देखा था। स्थानीय लोगों ने सुन रखा हुआ होगा कि वास्तव में शताब्दियों पहले उस भवन का निर्माण बाइस वर्षों में हुआ था और उसे भी यह बात स्थानीय लोगों से मालूम हुई होगी।
       
औरंगजेब के द्वारा अपने पिता शाहजहां को 9 दिसम्बर 1652 को लिखे गए पत्र में ताज के मरम्मत के विषय को भी लेखकों ने स्वीकारा है। औरंगजेब ने लिखा था कि पिछली बारिश के दौरान इमारत के उत्तरी भवन और सहायक कक्षों में छेद हो गए हैं तथा चार धनुषाकार दरवाजे, चार छोटे गुम्बद और उत्तरी दिशा की चार ड्यौढ़ियाँ बरबाद हो गई हैं। लेखक यह प्रश्न नहीं उठातेः निर्माण के मात्र तेरह वर्षों बाद ही क्या ताज क्षीण हो सकता है? क्या यह विश्वास करना सुसंगत नहीं होगा कि 1652 तक ताज ने सैकड़ों वर्षों की उम्र पूरी कर ली थी इसीलिए उसमें सामान्य टूट-फूट के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे।
       
शाही इतिहासकार बादशाह को वास्तु सम्बन्धी परियोजनाओं में निजी रूप से भाग लेने वाला बताने में और उसके उत्कृष्ट चरित्र की महिमा का गान करने में किंचित मात्र भी कमी नहीं की है। लेकिन यूरोपीय यात्रियों का कहना है कि बादशाह औरतों के प्रति वासना को छोड़कर लंबे समय तक कुछ अन्य कार्य कर पाने के लिए असमर्थ था। न ही उसे कोमल हृदय, करुणामय या महान प्रेमी समझा जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ही “प्रेमी” क्रूर, स्वयं-केन्द्रित और अनैतिक थे।
       
जहाँ बेग्ले और देसाई ताजमहल के प्रेम के प्रति समर्पित भवन मानने में भ्रमित हैं वहीं वे भवन के मुगल मूल होने के प्रति भी दृढ़ नहीं हैं। वे प्रमुख समस्याओं को अनदेखा करते हुए पारम्परिक दृष्टिकोण का ही समर्थन करते हैं:

  • जरा ताज मुख्य भवन के दोनों ओर की एक समान दो इमारतों की विशेषता पर गौर करें। यदि उन्हें दो अलग अलग कार्यों – एक मस्जिद हेतु और दूसरा अतिथिगृह हेतु – बनाए गए थे तो उन कार्यों के अनुरूप उनकी डिजाइन भी भिन्न भिन्न होनी थी।
  • मुगल आक्रमण के समय विकसित तोपखानों का चलन होने के बावजूद भी परिसर की परिधि दीवारों में मध्यकाल के पूर्व वाले तोपखाने क्यों है?  [एक महल के लिए सुरक्षा व्यवस्था तो समझ में आने वाली बात है किन्तु एक कब्रगाह की सुरक्षा की क्या आवश्यकता है?]
  • उत्तर दिशा की ओर यमुना किनारे वाले चबूतरे के नीचे कोई बीस कमरे क्यों बनाए गए हैं? एक कब्रगाह में इन कमरों की क्या जरूरत है? हाँ एक महल में अवश्य ही इन कमरों का सदुपयोग हो सकता है। लेखकों ने तो इन कमरों के अस्तित्व का ही कहीं पर भी जिक्र नहीं किया है।
  • इन आपस में सटे हुए बीस कमरों के विपरीत गलियारे वाले दक्षिण दिशा के सील किए गए कमरों में क्या है? क्या बीस सटे कमरे विपरीत लंबे गलियारे के दक्षिण की ओर बंद हुआ कमरे में है? उनके दरवाजों को किसने चिनाई करके बंद कर दिया है? उनके भीतर की वस्तुओं तथा सजावट का अध्ययन करने के लिए विद्वानों को क्यों अनुमति नहीं है?
  • “मस्जिद” का रुख मक्का की ओर होने के बजाय पश्चिम दिशा की ओर क्यों है?
  • भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India) ने कार्बन-14 या thermo-luminiscnece के माध्यम से ताज के काल निर्धारण को क्यों अवरुद्ध कर रखा है? ताज किस शताब्दी में बना है जैसे किसी भी विवाद को आसानी के साथ हल किया जा सकता है।
    [ताज के एक दरवाजे से गुप्त रूप से ले जाए गए लकड़ी के एक टुकड़े का रेडियोकार्बन (radiocarbon) विधि से कालनिर्धारण करने पर उसके 13वीं सदी के होने की सम्भावना पाई गई है। किन्तु और अधिक डेटा की आवश्यकता है।]
           
    यदि शाहजहां ने मुजताज़ के प्रति अपने प्रेम के लिए ताज को नहीं बनवाया था तो वह उसे प्राप्त क्यों करना चाहता था? जाहिर है कि मुमताज़ के लिए उसका प्यार एक आसानी के साथ किया गया छल था। वास्तव में वह पहले से बने भवन को स्वयं के लिए प्राप्त करना चाहता था। उस भवन के बदले में अन्य सम्पत्ति देने के शाहजहां के प्रस्ताव को राजा जय सिंह मना नहीं कर सका और इस प्रकार शाहजहां ने उसे हड़प लिया। सोने के मूल्यवान रेलिंग के साथ ही साथ उस भवन के अन्य मूल्यवान वस्तुओं को भी शाहजहां ने प्राप्त कर लिया। परिसर को एक मुस्लिम कब्रगाह बनाकर उसने जमा कर लिया कि हिन्दू अब उस भवन को कभी भी वापस लेना नहीं चाहेंगे। मुख्य भवन के पश्चिम दिशा के निवासगृह को शाहजहां ने साधारण अंदरूनी संशोधन करके और मेहराब बनाकर मस्जिद में परिवर्तित कर दिया। यह सिद्ध करने के लिए कि ताज आरम्भ से ही इस्लामिक इमारत है, उसने अनेक प्रवेश स्थलों तथा दरवाजों के चारों ओर इस्लामी शिलालेख जड़ दिया। निस्सन्देह, विद्वानों को आरम्भ से ही या तो चुप करा दिया गया है या धोखा दिया गया है।

           फिर भी, हम बेग्ले और देसाई को इतने अधिक इतने अधिक मात्रा में उपयोगी डेटा एकत्रित करने तथा समकालीन लेखन तथा शिलालेखों के अनुवाद करने के लिए धन्यवाद देंगे। वे ताज के विषय में एक संदिग्ध किंवदन्ती को स्वीकार करने के बजाय निरपेक्ष तथ्य देने में अवश्य ही असफल हैं। उनकी व्याख्याएँ और विश्लेषण पूर्वाग्रह के साँचे में ढले हैं। किन्तु उनके कार्य का लाभ ताजमहल के प्रति उत्सुकता रखने वाले विद्वानों तथा जनसाधारण अवश्य ही उठा सकते हैं और यह जानने में सफल हो सकते हैं कि ताजमहल को किसने और कब बनवाया था, यदि वे पुस्तक को खुले दिमाग से पढ़ें।
ताजमहल या शिव मन्दिर : श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक के 95 तर्क

नाम

  1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
  2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।
  3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।
  4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।
  5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।
  6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।
  7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।
  8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।
    मन्दिर परम्परा
  9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।
  10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।
  11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।
  12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
  13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।
  14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।
  15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।
  16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
  17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।
    प्रामाणिक दस्तावेज
  18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
  19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।
  20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
  21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।
  22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।
  23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती। और…
  24. फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।
    विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख
  25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।
  26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।
  27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।
  28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।
  29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।
    संस्कृत शिलालेख
  30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।
    शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के संबंध में कथन
  31. “ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (‘COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।”
    कुरान की आयतों के पैबन्द
  32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।
  33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।
    वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच
  34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।
    बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य
  35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।
  36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।
  37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।
  38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।
  39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है।
    अन्य असंगतियाँ
  40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।
  41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।
  42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
  43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।
  44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।
  45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।
  46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।
  47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।
  48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।
    ताजमहल में खजाने वाला कुआँ
  49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था। सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे। यदि कभी घेरा डाले हुये शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे। एक मकब़रे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुआँ बनाना बेमानी है। इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है।
    मुमताज के दफ़न की तारीख की जानकारी न होना
  50. यदि शाहज़हां ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज़ के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती। परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई। इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है।
  51. यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है। विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है। यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता। 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है। स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसीलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया?
    आधारहीन प्रेमकथाएँ
  52. शाहज़हां और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं। न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है। ताज के शाहज़हां के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके आधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया।
    कीमत
  53. शाहज़हां के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहज़हां ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं। इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है।
    निर्माणकाल
  54. इसी प्रकार से ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि शाहज़हां ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती।
    भवननिर्माणशास्त्री
  55. ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहज़हां स्वयं।
  56. ऐसा समझा जाता है कि शाहज़हां के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया। यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मजदूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते। वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है।
  57. अतः ताजमहल को शाहज़हाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की जिम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है।
  58. शाहज़हां के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है। ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है। भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है। किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती। ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहज़हां के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था।
  59. हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है।
  60. मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगम्बर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है। वास्तव में शाहज़हां को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे। शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है।
  61. ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है।
    हिंदू गुम्बज के सम्बतन्ध मे तर्क
  62. ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियों, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुणा अधिक कर देते हैं।
  63. ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं।
  64. ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है। यदि ताज का सम्बंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता।
    कब्र दफनस्थल होता है न कि भवन
  65. महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है। इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया। अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है। ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है। (भले ही केवल तर्क करने के लिये) इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज़ की लाश दफ़नाई गई न कि लाश दफ़नाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।
  66. ताज एक सातमंजिला भवन है। शाहज़ादा औरंगज़ेब के शाहज़हां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन के चार मंजिल संगमरमर पत्थरों से बने हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृतीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर के इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बने दो और मंजिलें हैं जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिये क्योंकि सभी प्राचीन हिंदू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।
  67. नदी तट से भाग में संगमरमर के नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहज़हां ने चुनवा दिया है। इन कमरों को जिन्हें कि शाहज़हां ने अतिगोपनीय बना दिया है भारत के पुरातत्व विभाग के द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों के दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिंदू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक एक दरवाजे बने हुये हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारा से चुनवा दिया गया है कि वे दीवाल जैसे प्रतीत हों।
  68. स्पष्तः मूल रूप से शाहज़हां के द्वारा चुनवाये गये इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाये हुये दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झाँक कर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहाँ के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देख कर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत सा हो गया। वहाँ बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारे मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहाँ पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिये कि ताजमहल हिंदू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन कौन से साक्ष्य छुपे हुये हैं उसके के सातों मंजिलों को खोल कर उसकी साफ सफाई करने की नितांत आवश्यकता है।
  69. अध्ययन से पता चलता है कि इन बंद कमरों के साथ ही साथ ताज के चौड़ी दीवारों के बीच में भी हिंदू चित्रों, मूर्तियों आदि छिपे हुये हैं। सन् 1959 से 1962 के अंतराल में श्री एस.आर. राव, जब वे आगरा पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट हुआ करते थे, का ध्यान ताजमहल के मध्यवर्तीय अष्टकोणीय कक्ष के दीवार में एक चौड़ी दरार पर गया। उस दरार का पूरी तरह से अध्ययन करने के लिये जब दीवार की एक परत उखाड़ी गई तो संगमरमर की दो या तीन प्रतिमाएँ वहाँ से निकल कर गिर पड़ीं। इस बात को खामोशी के साथ छुपा दिया गया और प्रतिमाओं को फिर से वहीं दफ़न कर दिया गया जहाँ शाहज़हां के आदेश से पहले दफ़न की गई थीं। इस बात की पुष्टि अनेक अन्य स्रोतों से हो चुकी है। जिन दिनों मैंने ताज के पूर्ववर्ती काल के विषय में खोजकार्य आरंभ किया उन्हीं दिनों मुझे इस बात की जानकारी मिली थी जो कि अब तक एक भूला बिसरा रहस्य बन कर रह गया है। ताज के मंदिर होने के प्रमाण में इससे अच्छा साक्ष्य और क्या हो सकता है? उन देव प्रतिमाओं को जो शाहज़हां के द्वारा ताज को हथियाये जाने से पहले उसमें प्रतिष्ठित थे ताज की दीवारें और चुनवाये हुये कमरे आज भी छुपाये हुये हैं।
  70. स्पष्टतः के केन्द्रीय भवन का इतिहास अत्यंत पेचीदा प्रतीत होता है। शायद महमूद गज़नी और उसके बाद के मुस्लिम प्रत्येक आक्रमणकारी ने लूट कर अपवित्र किया है परंतु हिंदुओं का इस पर पुनर्विजय के बाद पुनः भगवान शिव की प्रतिष्ठा करके इसकी पवित्रता को फिर से बरकरार कर दिया जाता था। शाहज़हां अंतिम मुसलमान था जिसने तेजोमहालय उर्फ ताजमहल के पवित्रता को भ्रष्ट किया।
  71. विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक ‘Akbar the Great Moghul’ में लिखते हैं, “बाबर ने सन् 1630 आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई”। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था।
  72. बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूँनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृतांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।
  73. बाबर स्वयं अपने संस्मरण में इब्राहिम लोधी के कब्जे में एक मध्यवर्ती अष्टकोणीय चारों कोणों में चार खम्भों वाली इमारत का जिक्र करता है जो कि ताज ही था। ये सारे संदर्भ ताज के शाहज़हां से कम से कम सौ साल पहले का होने का संकेत देते हैं।
  74. ताजमहल की सीमाएँ चारों ओर कई सौ गज की दूरी में फैली हुई है। नदी के पार ताज से जुड़ी अन्य भवनों, स्नान के घाटों और नौका घाटों के अवशेष हैं। विक्टोरिया गार्डन के बाहरी हिस्से में एक लंबी, सर्पीली, लताच्छादित प्राचीन दीवार है जो कि एक लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय स्तंभ तक जाती है। इतने वस्तृत भूभाग को कब्रिस्तान का रूप दे दिया गया।
  75. यदि ताज को विशेषतः मुमताज़ के दफ़नाने के लिये बनवाया गया होता तो वहाँ पर अन्य और भी कब्रों का जमघट नहीं होता। परंतु ताज प्रांगण में अनेक कब्रें विद्यमान हैं कम से कम उसके पूर्वी एवं दक्षिणी भागों के गुम्बजदार भवनों में।
  76. दक्षिणी की ओर ताजगंज गेट के दूसरे किनारे के दो गुम्बजदार भवनों में रानी सरहंडी ब़ेगम, फतेहपुरी ब़ेगम और कु. सातुन्निसा को दफ़नाया गया है। इस प्रकार से एक साथ दफ़नाना तभी न्यायसंगत हो सकता है जबकि या तो रानी का दर्जा कम किया गया हो या कु. का दर्जा बढ़ाया गया हो। शाहज़हां ने अपने वंशानुगत स्वभाव के अनुसार ताज को एक साधारण मुस्लिम कब्रिस्तान के रूप में परिवर्तित कर के रख दिया क्योंकि उसने उसे अधिग्रहित किया था (ध्यान रहे बनवाया नहीं था)।
  77. शाहज़हां ने मुमताज़ से निक़ाह के पहले और बाद में भी कई और औरतों से निक़ाह किया था, अतः मुमताज़ को कोई ह़क नहीँ था कि उसके लिये आश्चर्यजनक कब्र बनवाया जावे।
  78. मुमताज़ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उसमें ऐसा कोई विशेष योग्यता भी नहीं थी कि उसके लिये ताम-झाम वाला कब्र बनवाया जावे।
  79. शाहज़हां तो केवल एक मौका ढूंढ रहा था कि कैसे अपने क्रूर सेना के साथ मंदिर पर हमला करके वहाँ की सारी दौलत हथिया ले, मुमताज़ को दफ़नाना तो एक बहाना मात्र था। इस बात की पुष्टि बादशाहनामा में की गई इस प्रविष्टि से होती है कि मुमताज़ की लाश को बुरहानपुर के कब्र से निकाल कर आगरा लाया गया और ‘अगले साल’ दफ़नाया गया। बादशाहनामा जैसे अधिकारिक दस्तावेज़ में सही तारीख के स्थान पर ‘अगले साल’ लिखने से ही जाहिर होता है कि शाहज़हां दफ़न से सम्बंधित विवरण को छुपाना चाहता था।
  80. विचार करने योग्य बात है कि जिस शाहज़हां ने मुमताज़ के जीवनकाल में उसके लिये एक भी भवन नहीं बनवाया, मर जाने के बाद एक लाश के लिये आश्चर्यमय कब्र कभी नहीं बनवा सकता।
  81. एक विचारणीय बात यह भी है कि शाहज़हां के बादशाह बनने के तो या तीन साल बाद ही मुमताज़ की मौत हो गई। तो क्या शाहज़हां ने इन दो तीन साल के छोटे समय में ही इतना अधिक धन संचय कर लिया कि एक कब्र बनवाने में उसे उड़ा सके?
  82. जहाँ इतिहास में शाहज़हां के मुमताज़ के प्रति विशेष आसक्ति का कोई विवरण नहीं मिलता वहीं शाहज़हां के अनेक औरतों के साथ, जिनमें दासी, औरत के आकार के पुतले, यहाँ तक कि उसकी स्वयं की बेटी जहांआरा भी शामिल है, के साथ यौन सम्बंधों ने उसके काल में अधिक महत्व पाया। क्या शाहज़हां मुमताज़ की लाश पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाता?
  83. और भी कई भ्रमित करने वाली लुभावनी बातें बना दी गई हैं। कुछ लोग विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि शाहज़हां ने पूरे संसार के सर्वश्रेष्ठ भवननिर्माणशास्त्रियों से संपर्क करने के बाद उनमें से एक को चुना था। तो कुछ लोगों का यग विश्वास है कि उसने अपने ही एक भवननिर्माणशास्त्री को चुना था। यदि यह बातें सच होती तो शाहज़हां के शाही दस्तावेजों में इमारत के नक्शों का पुलिंदा मिला होता। परंतु वहाँ तो नक्शे का एक टुकड़ा भी नहीं है। नक्शों का न मिलना भी इस बात का पक्का सबूत है कि ताज को शाहज़हां ने नहीं बनवाया।
  84. ताजमहल बड़े बड़े खंडहरों से घिरा हुआ है जो कि इस बात की ओर इशारा करती है कि वहाँ पर अनेक बार युद्ध हुये थे।
  85. ताज के दक्षिण में एक प्रचीन पशुशाला है। वहाँ पर तेजोमहालय के पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।
  86. ताज के पश्चिमी छोर में लाल पत्थरों के अनेक उपभवन हैं जो कि एक कब्र के लिया अनावश्यक है।
  87. संपूर्ण ताज में 400 से 500 कमरे हैं। कब्र जैसे स्थान में इतने सारे रहाइशी कमरों का होना समझ के बाहर की बात है।
  88. ताज के पड़ोस के ताजगंज नामक नगरीय क्षेत्र का स्थूल सुरक्षा दीवार ताजमहल से लगा हुआ है। ये इस बात का स्पष्ट निशानी है कि तेजोमहालय नगरीय क्षेत्र का ही एक हिस्सा था। ताजगंज से एक सड़क सीधे ताजमहल तक आता है। ताजगंज द्वार ताजमहल के द्वार तथा उसके लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय वाटिका के ठीक सीध में है।
  89. ताजमहल के सभी गुम्बजदार भवन आनंददायक हैं जो कि एक मकब़रे के लिय उपयुक्त नहीं है।
  90. आगरे के लाल किले के एक बरामदे में एक छोटा सा शीशा लगा हुआ है जिससे पूरा ताजमहल प्रतिबिंबित होता है। ऐसा कहा जाता है कि शाहज़हां ने अपने जीवन के अंतिम आठ साल एक कैदी के रूप में इसी शीशे से ताजमहल को देखते हुये और मुमताज़ के नाम से आहें भरते हुये बिताया था। इस कथन में अनेक झूठ का संमिश्रण है। सबसे पहले तो यह कि वृद्ध शाहज़हां को उसके बेटे औरंगज़ेब ने लाल किले के तहखाने के भीतर कैद किया था न कि सजे-धजे और चारों ओर से खुले ऊपर के मंजिल के बरामदे में। दूसरा यह कि उस छोटे से शीशे को सन् 1930 में इंशा अल्लाह ख़ान नामक पुरातत्व विभाग के एक चपरासी ने लगाया था केवल दर्शकों को यह दिखाने के लिये कि पुराने समय में लोग कैसे पूरे तेजोमहालय को एक छोटे से शीशे के टुकड़े में देख लिया करते थे। तीसरे, वृद्ध शाहज़हाँ, जिसके जोड़ों में दर्द और आँखों में मोतियाबिंद था घंटो गर्दन उठाये हुये कमजोर नजरों से उस शीशे में झाँकते रहने के काबिल ही नहीं था जब लाल किले से ताजमहल सीधे ही पूरा का पूरा दिखाई देता है तो छोटे से शीशे से केवल उसकी परछाईं को देखने की आवश्कता भी नहीं है। पर हमारी भोली-भाली जनता इतनी नादान है कि धूर्त पथप्रदर्शकों (guides) की इन अविश्वासपूर्ण और विवेकहीन बातों को आसानी के साथ पचा लेती है।
  91. ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुये हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दिये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था।
  92. ताजमहल पर शाहज़हां के स्वामित्व तथा शाहज़हां और मुमताज़ के अलौकिक प्रेम की कहानी पर विश्वास कर लेने वाले लोगों को लगता है कि शाहज़हाँ एक सहृदय व्यक्ति था और शाहज़हां तथा मुमताज़ रोम्यो और जूलियट जैसे प्रेमी युगल थे। परंतु तथ्य बताते हैं कि शाहज़हां एक हृदयहीन, अत्याचारी और क्रूर व्यक्ति था जिसने मुमताज़ के साथ जीवन भर अत्याचार किये थे।
  93. विद्यालयों और महाविद्यालयों में इतिहास की कक्षा में बताया जाता है कि शाहज़हां का काल अमन और शांति का काल था तथा शाहज़हां ने अनेकों भवनों का निर्माण किया और अनेक सत्कार्य किये जो कि पूर्णतः मनगढ़ंत और कपोल कल्पित हैं। जैसा कि इस ताजमहल प्रकरण में बताया जा चुका है, शाहज़हां ने कभी भी कोई भवन नहीं बनाया उल्टे बने बनाये भवनों का नाश ही किया और अपनी सेना की 48 टुकड़ियों की सहायता से लगातार 30 वर्षों तक अत्याचार करता रहा जो कि सिद्ध करता है कि उसके काल में कभी भी अमन और शांति नहीं रही।
  94. जहाँ मुमताज़ का कब्र बना है उस गुम्बज के भीतरी छत में सुनहरे रंग में सूर्य और नाग के चित्र हैं। हिंदू योद्धा अपने आपको सूर्यवंशी कहते हैं अतः सूर्य का उनके लिये बहुत अधिक महत्व है जबकि मुसलमानों के लिये सूर्य का महत्व केवल एक शब्द से अधिक कुछ भी नहीं है। और नाग का सम्बंध भगवान शंकर के साथ हमेशा से ही रहा है।
    झूठे दस्तावेज़
  95. ताज के गुम्बज की देखरेख करने वाले मुसलमानों के पास एक दस्तावेज़ है जिसे के वे “तारीख-ए-ताजमहल” कहते हैं। इतिहासकार एच.जी. कीन ने उस पर ‘वास्तविक न होने की शंका वाला दस्तावेज़’ का मुहर लगा दिया है। कीन का कथन एक रहस्यमय सत्य है क्योंकि हम जानते हैं कि जब शाहज़हां ने ताजमहल को नहीं बनवाया ही नहीं तो किसी भी दस्तावेज़ को जो कि ताजमहल को बनाने का श्रेय शाहज़हां को देता है झूठा ही माना जायेगा।
  96. पेशेवर इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा भवनशास्त्रियों के दिमाग में ताज से जुड़े बहुत सारे कुतर्क और चतुराई से भरे झूठे तर्क या कम से कम भ्रामक विचार भरे हैं। शुरू से ही उनका विश्वास रहा है कि ताज पूरी तरह से मुस्लिम भवन है। उन्हें यह बताने पर कि ताज का कमलाकार होना, चार स्तंभों का होना आदि हिंदू लक्षण हैं, वे गुणवान लोग इस प्रकार से अपना पक्ष रखते हैं कि ताज को बनाने वाले कारीगर, कर्मचारी आदि हिंदू थे और शायद इसीलिये उन्होंने हिंदू शैली से उसे बनाया। पर उनका पक्ष गलत है क्योंकि मुस्लिम वृतान्त दावा करता है कि ताज के रूपांक (designers) बनवाने वाले शासक मुस्लिम थे, और कारीगर, कर्मचारी इत्यादि लोग मुस्लिम तानाशाही के विरुद्ध अपनी मनमानी कर ही नहीं सकते थे।

इस्लाम का मुख्यम काम भारत को लूटना मात्र था, उन्होंने तत्कालीन मंदिरों अपना निशाना बनाया। हिन्दू मंदिर उस समय अपने ऐश्वर्य के चरम पर रहे थे। इसी प्रकार आज का ताजमहल नाम से विख्यात तेजोमहाजय को भी अपना निशाना बनाया।

मुस्लिम शासकों ने देश के हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देकर उन्हें बनवाने का श्रेय स्वयं ले लिया इस बात का ताज एक आदर्श उदारहरण है।

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace (देखिये The True Story of the Taj Mahal) में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि क्या ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है? जिसका असली नाम तेजो महालय है।

श्री ओक ने कई वर्ष पहले ही अपने इन तथ्यों और प्रमाणों को प्रकाशित कर दिया था पर दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है।
विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है। क्या कभी सच्चाई सामने आ पायेगी?

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error

If you liked this article please share it with your friends

LinkedIn
Share
WhatsApp
URL has been copied successfully!
Scroll to Top