
इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें सबसे पहले महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरु के नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से संबंधों के विषय में जान लेना चाहिए!
नेताजी ने ‘इण्डियन सिविल सर्विसेज’ (तब का यह आई.सी.एस. ही अब आई.ए.एस. कहलाता है) की परीक्षा में चौथा (या शायद दूसरा) स्थान प्राप्त किया था। यह उनके प्रतिभाशाली होने का परिचायक है। साथ ही उनका व्यक्तित्व शानदार था, भाषण की कला जानदार थी और नेतृत्व की क्षमता अद्भुत थी। उनकी देशभक्ति के बारे में कुछ कहना सूरज को दीया दिखाने जैसा है और उस समय नेताजी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ‘भारत के स्वतंत्रता सेनानी’ के रुप में प्रसिद्ध थे
कुछ इन्हीं कारणों से सम्भवतः नेहरूजी के मन में नेताजी के प्रति एक ग्रन्थी-सी बन गयी थी । इसलिए नेहरु जी ने माउण्टबेटन से कुछ समझौते भी कर लिए थे। फलस्वरुप, आजादी के बाद न तो वे नेताजी को ‘स्वतंत्रता-सेनानी’ का दर्जा दिलवाते हैं, और न ही आधुनिक भारत के इतिहास के पन्नों में स्वतंत्रता-संग्राम में नेताजी तथा उनके आजाद हिन्द फौज के योगदान का समुचित जिक्र होने देते हैं। फिर भी विश्व में बहुत ही कम ऐसे नेता हुए हैं, जिनके बारे में विश्व का कोई भी व्यक्ति कभी कोई अपशब्द नहीं बोल सकता- नेताजी उनमें से एक हैं। दुनिया के किसी भी देश का नागरिक नेताजी के प्रति सम्मान से सर झुकाता है l यह हमारे देश और हम भारतीयों के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।

“वर्धा से लौटते हुए नागपुर स्टेशन पर एक नवयुवक ने गाँधी जी से यह सवाल पूछा कि कार्य-समिति ने सुभाष बाबू की गिरफ्तारी की तरफ क्यों कुछ ध्यान नहीं दिया ? सुभाष बाबू दो बार काँग्रेस के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं। अपनी जिन्दगी में उन्होंने भारी आत्मबलिदान किया है। वह एक जन्मजात नेता हैं। मगर सिर्फ इस वजह से कि उनमें ये सब गुण हैं, उनकी गिरफ्तारी के विरुद्ध कार्य-समिति अपनी आवाज ऊँची करे।”
गाँधी जी यह बात अच्छी तरह जानते थे कि बात चाहे देशभक्ति की हो या आत्मबलिदान की प्रतिभा की हो या फिर नेतृत्व की क्षमता की, हर मामले में सुभाष, नेहरू से बीस है।
इसके बावजूद गाँधी जी नेताजी सुभाष के प्रति सौतेला-सा भाव रखते हैं और नेहरूजी को (1941 में) अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं। ऐसा वे सिर्फ ‘वैचारिक मतभेद’ के कारण करते हैं। गाँधी जी जहाँ अँग्रेजों का हृदय-परिवर्तन करना चाहते थे, वहीं नेताजी अँग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाना चाहते थे। अन्तिम लक्ष्य दोनों का एक ही था- आजादी! इस ‘वैचारिक मतभेद’ के बावजूद नेताजी, गाँधी जी के प्रति ‘पिता-तुल्य’ जैसा सम्मान मन में बनाये रखते हैं। ध्यान रहे कि गाँधी जी को “राष्ट्रपिता” का सम्बोधन पहले नेताजी ने ही आजाद हिन्द रेडियो पर दिया था- बाद में सारे देश ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा।
देखा जाय तो स्वतंत्र भारत की नियति तय करने में गाँधीजी के तीन फैसले अहम भूमिका निभाते हैं:
- 1939 में नेताजी को काँग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए वे मजबूर करते हैं,
- 1944 में इम्फाल-कोहिमा युद्ध के दौरान नेताजी के समर्थन में जनता को आन्दोलित होने का आह्वान वे नहीं करते, और….
- 1946 में काँग्रेस के अध्यक्ष पद पर वे सरदार पटेल के स्थान पर नेहरू जी को बैठाते हैं।
पहले दो विन्दुओं की चर्चा ऊपर की जा चुकी है, अब यहाँ तीसरे विन्दु के विस्तार में चलते हैं। 1946 में जो काँग्रेस का अध्यक्ष बनेगा, वही स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनेगा l यह तय है। इसलिए इस बार अध्यक्ष चुनने से पहले काँग्रेस की 16 प्रान्तीय समितियों से प्रस्ताव मँगवाये जाते हैं। उम्मीदवार के रूप में एक तरफ नेहरूजी का करिश्माई व्यक्तित्व है, तो दूसरी तरफ सरदार पटेल का कर्मठ व्यक्तित्व। जबकि गाँधीजी पाँच साल पहले ही दोनों में से नेहरूजी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं इसके बाद भी परिपक्वता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए 16 में से 13 प्रान्तीय समितियाँ सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित करती हैं। केन्द्रीय समिति की बैठक में गाँधीजी, नेहरूजी से पूछते हैं- ‘दूसरा’ स्थान स्वीकार है? और मारे शर्म और क्रोध के नेहरूजी का चेहरा तमतमा कर लाल हो जाता है। अब गाँधीजी यही सवाल सरदार पटेल से करते हैं- उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
नेहरूजी अध्यक्ष बनते हैं, एक तरफ राजभवन से (जाने वाले) वायसराय वावेल और दूसरी तरफ सिंगापुर से (आने वाले) वायसराय माउण्टबेटन उन्हें आमंत्रित करते हैं, और स्वतंत्र भारत की नियति तय हो जाती है ।
गाँधीजी के इन फैसलों का कितना नफा या नुकसान हमारे देश को उठाना पड़ा- इसका आकलन हम आज नहीं कर सकते। आने वाली दो-एक शताब्दी के बाद क्षमाहीन और निर्मम “काल” इसका आकलन करेगा!
नेताजी सुभाष जीवित थे…!
हमें बताया जाता है कि 18 अगस्त 1945 के दिन (तत्कालीन फारमोसा / वर्तमान में ताईवान की राजधानी ताईपेह के निकट) ताईहोकू हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हो गयी थी जबकि नेहरू जी ने यह पत्र ब्रिटिश पी.एम. को 26 दिसम्बर 1945 को लिखा था l
26 या 27 दिसम्बर 1945 को नेहरूजी आसिफ अली के निवास पर बैठकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेण्ट एटली के नाम एक पत्र टाईप करवाते हैं।

श्री क्लिमेण्ट एटली
ब्रिटिश प्रधानमंत्री
10 डाउनिंग स्ट्रीट, लन्दन
प्रिय मि. एटली, अत्यन्त भरोसेमन्द स्रोत से मुझे पता चला है कि आपके युद्धापराधी सुभाष चन्द्र बोस को स्टालिन द्वारा रूसी क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति दे दी गयी है। यह सरासर धोखेबाजी और विश्वासघात है। रूस चूँकि ब्रिटिश-अमेरीकियों का मित्र है, अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।
कृपया इस पर ध्यान दें और जो उचित तथा सही समझें वह करें।
आपका विश्वासी,
जवाहरलाल नेहरू
विजयलक्ष्मी पण्डित मास्को से क्या खबर लाई थी?
जब देश आजाद हुआ, तब नेहरूजी की बहन विजयलक्ष्मी पण्डित मास्को में थीं । उन्हें सोवियत संघ में भारत की राजदूत घोषित कर दिया जाता है। जैसा कि बताया जाता है- मास्को से लौटकर एक बार पालम हवाई अड्डे पर श्रीमती पण्डित ने कहा- वे सोवियत संघ से ऐसी खबर लायी हैं, जिसे सुनकर देशवासियों को उतनी ही खुशी मिलेगी, जितनी की आजादी से मिली थी। कूटनीति के अनुसार, विदेश से लायी गयी किसी बड़ी खबर को आम करने से पहले (राजदूत को) देश के प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री से सलाह लेनी पड़ती है। भारत के प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री- दोनों नेहरूजी ही हैं। सो जाहिर है, विजयलक्ष्मी पण्डित फिर कभी वह “आजादी के समान प्रसन्नता देने वाली खबर” देशवासियों को नहीं सुना पायीं । और इसके बाद विजयलक्ष्मी पण्डित को नेहरू जी मास्को से हटाकर वाशिंगटन भेज देते हैं यानि उन्हें अमेरीका का राजदूत बना दिया जाता है। और 1970 में गठित ‘खोसला आयोग’ इस विषय पर बयान देने के लिए श्रीमती पण्डित को बुलाता है, लेकिन वे उपस्थित नहीं होतीं।
डॉ. राधाकृष्णन का राजदूत से उपराष्ट्रपति बनना: माजरा क्या था?

मास्को में भारत के अगले राजदूत बनकर जाते हैं- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। स्टालिन तब भी सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे । वे अक्सर राधाकृष्णन से मिलते हैं और दर्शनशास्त्र पर चर्चा करते हैं। स्तालिन ने राधाकृष्णन को साइबेरिया जाकर नेताजी को ‘देखने’ की अनुमति प्रदान कर दी थी। उन्हें कुछ दूरी से नेताजी को देखना था, बातचीत नहीं करनी थी। एक अन्य घटना के अनुसार, डॉ. राधाकृष्णन मास्को में नेताजी से मिले थे और नेताजी ने उनसे अनुरोध किया था कि वे उनकी भारत वापसी की व्यवस्था करें।
सच्चाई चाहे जो हो, मगर इतना सच है कि भारत में इन खबरों ने ऐसा जोर पकड़ा कि डॉ. राधा कृष्णन को मास्को से बुलाना पड़ गया। यहाँ तक तो बात सामान्य थी यह खबर एक अफवाह हो सकती थी। किन्तु इसके बाद नेहरू जी राधाकृष्णन को अचानक भारत का उपराष्ट्रपति बनवा देते हैं। जबकि काँग्रेस में उनसे वरिष्ठ कई नेता मौजूद थे, जिनका स्वतंत्रता संग्राम में भारी योगदान रहा है। यहाँ तक कि मौलाना आजाद के मुँह से निकलता भी है- “क्या हम सब मर गये हैं ?” बाद के दिनों में ‘खोसला आयोग’ डॉ. राधाकृष्णन को भी सफाई देने के लिए बुलाता है। वे अस्पताल में आरोग्य लाभ कर रहे हैं, मगर ‘डिक्टेट’ करके वे अपना बयान टाईप करवा सकते थे- कि वह अफवाह सच्ची थी या झूठी; या आयोग खुद चेन्नई जाकर अस्पताल में उनकी गवाही ले सकता था… मगर ऐसा कुछ नहीं होता। ऐसा नहीं है कि डॉ. राधाकृष्णन ने कभी कुछ कहा ही नहीं होगा। कलकत्ता विश्वविद्यालय के डॉ. सरोज दास और डॉ. एस.एम. गोस्वामी का कहना था कि डॉ. राधाकृष्णन ने उनसे नेताजी के रूस में होने की बात स्वीकारी थी।
“साइबेरिया जेल का “खिल्सायी मलंग”
सोवियत साम्यवादी पार्टी के क्राँतिकारी सदस्य तथा भारत की साम्यवादी पार्टी के संस्थापकों में से एक अबनी मुखर्जी साइबेरिया की जेल में नेताजी के बगल वाले सेल में ही बन्द थे। जेल में नेताजी “खिल्सायी मलंग” के नाम से जाने जाते थे। ये बातें उन्होंने अपने बेटे जॉर्जी मुखर्जी को बतायी थीं और बाद में जॉर्जी ने भूतपूर्व राजदूत सत्यनारायण सिन्हा को ये बातें बतायीं। अबनी, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (सरोजिनी नायडु के भाई) के साथी थे। दोनों को स्टालिन ने कैद कर रखा था और बाद में दोनों को स्टालिन ने मरवा दिया था । श्री सिन्हा भारत आकर इसे एक ताजी खबर समझकर नेहरूजी को इसके बारे में बताते हैं। मगर वे चकित रह गये यह देखकर कि खबर पर प्रसन्न होने के बजाय नेहरूजी उन्हें डाँटना शुरु कर देते हैं। तब से दोनों के बीच सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। श्री सिन्हा ने इस घटना का जिक्र अपनी किताब में किया है। खोसला आयोग को भी उन्होंने इसकी जानकारी दी थी।
अय्यर का नोट
1952 में एस.ए. अय्यर टोक्यो यात्रा पर जाते हैं। वहाँ से लौटकर एक व्यक्तिगत नोट वे नेहरूजी को सौंपते हैं, जो इस प्रकार है:- “मैंने इस बार एक बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र की है। कर्नल टाडा ने मुझे बताया कि युद्ध के अन्त में जब जापान ने आत्मसमर्पण किया, तब तेराउचि ने नेताजी की मदद की जिम्मेवारी ली और मुझे (कर्नल टाडा को) काटा-काना (सुभाषचन्द्र बोस) के पास उन्हें रूसी सीमा पर पहुँचने की सूचना देने के लिए भेजा वहाँ उन्हें सारी मदद मिल जायेगी। इसकी व्यवस्था की गयी कि चन्द्र बोस सिदेयी के विमान से जायेंगे। जेनरल सिदेयी दाईरेन तक सुभाषचन्द्र बोस की देख-भाल करेंगे, उसके बाद उन्हें अपने बल पर रूसियों से सम्पर्क करना होगा। जापानी दुनिया के सामने घोषणा कर देंगे कि नेताजी दाईरेन से लापता हो गये। इससे मित्रराष्ट्र वालों की नजरों में वे (जापानी) बरी हो जायेंगे।”
नेहरूजी को माउण्टबेटन की चेतावनी
माउण्टबेटन के बुलावे पर नेहरूजी जब 1946 में (भावी प्रधानमंत्री के रूप में) सिंगापुर जाते हैं, तब गुजराती दैनिक ‘जन्मभूमि’ के सम्पादक श्री अमृतलाल सेठ भी उनके साथ होते हैं। लौटकर श्री सेठ नेताजी के भाई शरत चन्द्र बोस को बताते हैं कि एडमिरल लुई माउण्टबेटन ने नेहरूजी को कुछ इन शब्दों में चेतावनी दी है- हमें खबर मिली है कि बोस विमान दुर्घटना में नहीं मरे हैं, और अगर आप जोर-शोर से उनका यशोगान करते हैं और आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में फिर से शामिल करने की माँग करते हैं, तो आप नेताजी के प्रकट होने पर भारत को उनके हाथों में सौंपने का खतरा मोल ले रहे हैं।’
इस चेतावनी के बाद नेहरूजी सिंगापुर के ‘शहीद स्मारक’ (नेताजी द्वारा स्थापित) पर माल्यार्पण का अपना पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम रद्द कर देते हैं। बाद में वे कभी नेताजी की तारीफ नहीं करते, प्रधानमंत्री बनने पर आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल नहीं करते, नेताजी को ‘स्वतंत्रता-सेनानी’ का दर्जा नहीं दिलवाते, और जैसाकि हम और आप जानते ही हैं हमारी पाठ्य-पुस्तकों में स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास लिखते वक्त इसमें नेताजी और उनकी आजाद हिन्द सेना के योगदान का जिक्र न के बराबर किया जाता है।
(उल्लेखनीय है कि 15 से 18 जुलाई 1947 को कानपुर में आई.एन.ए. के सम्मेलन में नेहरूजी से इस आशय का अनुरोध किया गया था कि आजादी के बाद आई.एन.ए. (आजाद हिन्द) सैनिकों को नियमित भारतीय सेना में वापस ले लिया जाय, मगर नेहरूजी इसे नहीं निभाते; जबकि मो. अली जिन्ना ने पाकिस्तान गये आजाद हिन्द सैनिकों को नियमित सेना में जगह देकर इस अनुरोध का सम्मान रखा ।)
“हमें सुभाष बोस का इस्तेमाल करना होगा”
जाधवपुर विश्वविद्यालय की “प्रो. पूरबी रॉय” एशियाटिक सोसायटी के तीन सदस्यीय दल की एक सदस्या के रुप में ‘ओरिएण्टल इंस्टिट्यूट’, मास्को जाती हैं- 1917 से 1947 तक के भारतीय दस्तावेजों के अध्ययन के लिए (शोध का विषय है- भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी का इतिहास)। यह 1996 की बात है। उन्हें पता चलता है कि साइबेरिया के ओम्स्क शहर में, जहाँ कि आजाद हिन्द सरकार का कौन्सुलेट था, सेना की आलमारियों में नेताजी से सम्बन्धित काफी दस्तावेज हैं और भारत सरकार के एक आधिकारिक अनुरोध पर ही उसे शोध के लिए खोल दिया जायेगा। इसलिए प्रो. रॉय पत्र लिखकर इस बात की सूचना भारत सरकार को देती हैं। पत्र के जवाब में उनका शोध रोक दिया जाता है क्योंकि शोध का खर्च सरकार ही उठा रही थी। उन्हें वापस बुला लिया जाता है और दोबारा मास्को नहीं जाने दिया जाता। हालाँकि इस बीच प्रो. रॉय एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल करने में सफल रहती हैं। वह दस्तावेज है- मुम्बई में नियुक्त (सोवियत गुप्तचर संस्था) के.जी.बी. के एक एजेण्ट की रिपोर्ट, जिसमें भारत की राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करते हुए कहा जा रहा है:“
… नेहरू या गाँधी के साथ काम करना सम्भव नहीं है, हमें सुभाष बोस का इस्तेमाल करना ही होगा।”
(“… It is not possible to work with Nehru or Gandhi, we have to use Subhas Bose”)
यह रिपोर्ट 1946 की थी । अर्थात् 1946 में नेताजी जीवित थे और सोवियत संघ में ही थे !

यदि नेताजी भारत पहुँच जाते तो….?
यदि नेताजी सुभाष भारत आये तो उन्हें ब्रिटेन को सौंप दिया जायेगा !
– गाँधी, नेहरु, जिन्ना, आजाद
अब इसके बाद यही मार्ग हो सकता था ? कि वे “अप्रकट” रुप से भारत में प्रवेश करें और रहें ।
गुलामी का दौर भी अन्धेरे का ही दौर था। उस वक्त नेताजी किस प्रकार के शासन के बारे में सोचते थे यह उनके निम्न कथन से पता चलता है:- ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बाद इस भारत में पहले बीस वर्ष के लिये तानाशाही राज्य कायम होनी चाहिये। एक तानाशाही ही देश से गद्दारों को निकाल सकता है।”

नेताजी के कथन में जिन्हें ‘गद्दार’ कहा गया हैं, आज भी वे हमारे बीच भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट उच्चाधिकारी, भ्रष्ट पूँजीपति और माफिया सरगना के रुप में मौजूद हैं- इसमें कोई दो राय नहीं है।
नेताजी ने ये बातें भले आजादी से बहुत पहले कही थीं, मगर आजादी के वर्षों के बाद आज इन कथनों की सार्थकता अचानक बढ़ गयी है। नेताजी के कथन में जिन्हें ‘गद्दार’ कहा गया हैं, आज भी वे हमारे बीच भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट उच्चाधिकारी, भ्रष्ट पूँजीपति और माफिया सरगना के रुप में मौजूद हैं- इसमें कोई दो राय नहीं है।
“फॉरवर्ड ब्लॉक” के मियाँ अकबर शाह से लेकर ‘इण्डियन लीजन’ के आबिद हसन तक, और फिर “आजाद हिन्द फौज” के हबिबुर्रहमान तक, नेताजी के सैकड़ों मित्र एवं सहयोगी मुसलमान थे। यहाँ इस तथ्य का जिक्र सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि सहज ही अनुमान लगाया जा सके कि अगर नेताजी ‘दिल्ली पहुँच’ गये होते, तो आज हमारा देश तीन टुकड़ों में बँटा हुआ नहीं होता!
- अँग्रेजों के तलवे सहलाने वाले जो बाद में पी.एम., एम.पी., एम.एल.ए. बनने लगे, यह नेताजी नहीं होने देते! (सत्ता सम्भालने के बाद नेताजी के पहले कामों में से एक होता- इन गद्दारों को ‘काला पानी’ भेजना।)
- पहले आम चुनाव से लेकर अब तक जो ‘वोट खरीदने’ की बातें सामने आती हैं- यह भी नहीं होती। क्योंकि ‘हर किसी को वयस्क मताधिकार’ देने में नेताजी जल्दीबाजी नहीं करते। 10-15 वर्षॉं में नागरिकों को शिक्षित एवं जागरूक बनाने के बाद ही वे नागरिकों को वोट देने की “जिम्मेवारी और अधिकार” प्रदान करते!
- सेना और पुलिस का “ब्रिटिश हैंगओवर” वे एक झटके में उतार देते ! बेशक… जो अधिकारी राजी नहीं होते, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। (रात जमकर शराब पीने के बाद सुबह नींद से उठने पर भी जो नशा रहता है, उसे ‘हैंग-ओवर’ कहते हैं। यहाँ ब्रिटिश हैंगओवर से तात्पर्य है- खुद को अँग्रेज और आम लोगों/सिपाहियों को भारतीय समझने की मानसिकता।) ‘लालफीताशाही’ वे पनपने ही नहीं देते।
एक आई.सी.एस. या आई.ए.एस. अधिकारी एक साधारण नेता पर हावी हो सकता है, मगर नेताजी-जैसे प्रतिभाशाली नेता के सामने उनकी एक न चलती और बाद में भी नेताजी ऐसी चुनाव-व्यवस्था करते कि प्रतिभाशाली नेता ही चुनकर एम.पी., एम.एल.ए. बनते और इस प्रकार, ब्यूरोक्रैसी कभी व्यवस्था पर हावी नहीं हो पाती।
अब एक सबसे महत्वपूर्ण बात- कृपया इसे ध्यान से पढें :- “शाहनवाज खान” नेताजी के दाहिने हाथ रहे थे- इसमें दो राय नहीं है। मगर जैसे ही इम्फाल-कोहिमा सीमा से खबर आती है कि खान ब्रिटिश सेना में तैनात अपने भाई के सम्पर्क में हैं, नेताजी न केवल खान को रंगून मुख्यालय बुला लेते हैं, बल्कि ‘कोर्ट-मार्शल’ का भी आदेश दे देते हैं। अगर नेताजी का भाई या भतीजा खान के स्थान पर होता, तो भी नेताजी दया नहीं दिखाते। बाद में, कुछ कारणों से खान का कोर्ट-मार्शल तो नहीं हो पाया, मगर खान को नेताजी ने अपने निकट भी नहीं आने दिया। सिंगापुर के अन्तिम दिनों में नेताजी साथ रहने वाले जिन सहयोगियों के नाम आते हैं, उनमें शाहनवाज खान का जिक्र नहीं है।
इसके मुकाबले जवाहरलाल नेहरू जी का रवैया देखिये- 1948 में देश में पहला घोटाला होता है- “जीप घोटाला”। घोटाला करने वाले थे – ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त श्री वी.के. कृष्ण मेनन, जो नेहरू जी के दाहिने हाथ हैं। सेना के लिए 1500 जीपों की खरीद के लिए 1 लाख 72 हजार पाउण्ड धनराशि का अग्रिम भुगतान विवादास्पद कम्पनी को कर दिया जाता है। जो 155 जीपें पहली खेप में आती हैं, वे चलने लायक भी नहीं हैं। 1949 में जाँच होती है, सरसरी तौर पर मेनन को दोषी ठहराया जाता है; मगर नेहरूजी 30 सितम्बर 1955 को मामले को बन्द करवा देते हैं। इतना ही नहीं, 3 फरवरी 1956 को मेनन को वे केन्द्रीय मंत्री बना देते हैं। सेना के लिए जीप खरीद घोटाला करने वाले को रक्षामंत्री बना दिया जाता है! अतः यह हमारे देश के साथ नियति का छल ही माना जायेगा कि नेताजी भारत नहीं पहुँच पाते हैं और हमारा देश एक खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली देश नहीं बन पाता है इसके बदले नेहरूजी को 17 वर्षों तक देश पर शासन करने का मौका मिलता है, जो देश के पहले घोटाले के दोषी को पुरस्कृत कर एक गलत परम्परा की शुरुआत कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप 21वीं सदी के दूसरे दशक की उदय बेला तक देश एक ‘घोटालेबाज’ देश के रुप में विश्व में (कु)प्रसिद्धि पा रहा था…

आजादी की कीमत हमेशा ऊँची होती है इसके लिए हमें एक रास्ता तो कभी नहीं चुनना चाहिए, वह है – आत्मसमर्पण या अनुरोध का।क्योंकि आजादी कभी भी अत्याचारी शासक की और स्वयं नहीं दी जाती बल्कि इसे शासित लोगों को खुद लेना होता है ।”
गाँधी जी जहाँ अँग्रेजों का हृदय-परिवर्तन करना चाहते थे, वहीं नेताजी अँग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाना चाहते थे। अन्तिम लक्ष्य दोनों का एक ही था- आजादी !
नेताजी की मृत्यु की जांच के लिए बने – तीन आयोग (1. शाहनवाज, 2. खोसला और 3. मुखर्जी आयोग)
देश आजाद होने के बाद संसद में कई बार माँग उठती है कि कथित विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिए सरकार कोशिश करे। मगर प्रधानमंत्री नेहरूजी इस माँग को प्रायः दस वर्षों तक टालने में सफल रहते हैं और भारत सरकार इस बारे में ताईवान सरकार (फारमोसा का नाम अब ताईवान हो गया है) से भी सम्पर्क नहीं करती और अन्त में जनप्रतिनिगण जस्टिस राधा विनोद पाल की अध्यक्षता में एक गैर-सरकारी जाँच आयोग के गठन का निर्णय लेते हैं। तब जाकर नेहरूजी 1956 में भारत सरकार की ओर से जाँच-आयोग के गठन की घोषणा करते हैं।
लोग सोच रहे थे कि जस्टिस राधाविनोद पाल को ही आयोग की अध्यक्षता सौंपी जायेगी। विश्वयुद्ध के बाद जापान के युद्धकालीन प्रधानमंत्री सह-युद्धमंत्री जनरल ‘हिदेकी तोजो’ पर जो युद्धापराध का मुकदमा चला था, उसकी ज्यूरी (वार क्राईम ट्रिब्यूनल) के एक सदस्य थे- जस्टिस पाल और उन्होंने जनरल तोजो का बचाव किया था। मुकदमे के दौरान जस्टिस पाल को जापानी गोपनीय दस्तावेजों के अध्ययन का अवसर मिला था, अतः स्वाभाविक रुप से वे जाँच-आयोग की अध्यक्षता के लिए उपयुक्त व्यक्ति थे ।
जापान ने दक्षिण-पूर्वी एशियायी देशों को अमेरीकी, ब्रिटिश, फ्राँसीसी और पुर्तगाली आधिपत्य से मुक्त कराने के लिए युद्ध छेड़ा था। नेताजी के दक्षिण एशिया में अवतरण के बाद भारत को भी ब्रिटिश आधिपत्य से छुटकारा दिलाना उसके एजेण्डे में शामिल हो गया। आजादी के लिए संघर्ष करना कहाँ से ‘अपराध’ हो गया? जापान ने कहा था- ‘एशिया- एशियायियों के लिए’- इसमें गलत क्या था? जो भी हो, जस्टिस राधाविनोद पाल का नाम जापान में सम्मान के साथ लिया जाता है।
मगर नेहरू जी को आयोग की अध्यक्षता के लिए सबसे योग्य व्यक्ति ‘शाहनवाज खान’ नजर आते हैं। शाहनवाज खान- उर्फ, लेफ्टिनेण्ट जेनरल एस.एन. खान। कुछ याद आया ?
वही शाहनवाज खान जो आजाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैन्याधिकारी थे और शुरु में नेताजी के दाहिने हाथ थे, मगर इम्फाल-कोहिमा फ्रण्ट से उनके विश्वासघात की खबर आने के बाद नेताजी ने उन्हें रंगून मुख्यालय वापस बुलाकर उनका कोर्ट-मार्शल करने का आदेश दे दिया था। उनके बारे में यह भी बताया जाता है कि कि लाल-किले के कोर्ट-मार्शल में उन्होंने खुद यह स्वीकार किया था कि आई.एन.ए./आजाद हिन्द फौज में रहते हुए उन्होंने गुप्त रुप से ब्रिटिश सेना को मदद ही पहुँचाने का काम किया था। यह भी जानकारी मिलती है कि बँटवारे के बाद वे पाकिस्तान चले गये थे, मगर नेहरूजी उन्हें भारत वापस बुलाकर अपने मंत्रीमण्डल में उन्हें सचिव का पद देते हैं। विमान-दुर्घटना में नेताजी को मृत घोषित कर देने के बाद शाहनवाज खान को नेहरू मंत्रीमण्डल में मंत्री पद (रेल राज्य मंत्री) प्रदान किया जाता है। आयोग के दूसरे सदस्य सुरेश कुमार बोस (नेताजी के बड़े भाई) खुद को शाहनवाज खान के निष्कर्ष से अलग कर लेते हैं। उनके अनुसार, जापानी राजशाही ने विमान-दुर्घटना का ताना-बाना बुना है, और नेताजी जीवित हैं।
दूसरा आयोग : खोसला आयोग :-
शाहनवाज आयोग का निष्कर्ष देशवासियों के गले के नीचे नहीं उतरता है। साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर सरकार 11 जुलाई 1970 को एक दूसरे आयोग का गठन करना पड़ता है। यह इन्दिरा जी का समय है। इस आयोग का अध्यक्ष जस्टिस जी.डी. खोसला को बनाया जाता है। जस्टिस घनश्याम दास खोसला के बारे में तीन तथ्य जानना ही काफी होगा:
1. वे नेहरूजी के मित्र रहे हैं..
2. वे जाँच के दौरान ही श्रीमती इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख रहे थे, और…
3. वे नेताजी की मृत्यु की जाँच के साथ-साथ तीन अन्य आयोगों की भी अध्यक्षता कर रहे थे।
सांसदों के दवाब के चलते आयोग को इस बार ताईवान भेजा जाता है। मगर ताईवान जाकर जस्टिस खोसला किसी भी सरकारी संस्था से सम्पर्क नहीं करते- वे बस हवाई अड्डे तथा शवदाहगृह से घूम आते हैं। कारण यह है कि ताईवान के साथ भारत का कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं थे। हाँ, कथित विमान-दुर्घटना में जीवित बचे कुछ लोगों का बयान यह आयोग लेता है, मगर पाकिस्तान में बसे मुख्य गवाह कर्नल हबिबुर्रहमान खोसला आयोग से मिलने से इन्कार कर देते हैं। खोसला आयोग की रपट पिछले शाहनवाज आयोग की रपट का सारांश साबित होती है। इसमें अगर नया कुछ है, तो वह है- भारत सरकार को इस मामले में पाक-साफ एवं ईमानदार साबित करने की पुरजोर कोशिश।
तीसरा आयोग : मुखर्जी आयोग :-
28 अगस्त 1978 को संसद में प्रोफेसर समर गुहा के सवालों का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई कहते हैं कि कुछ ऐसे आधिकारिक दस्तावेजी अभिलेख (Official Documentary Records) उजागर हुए हैं, जिनके आधार पर साथ ही, पहले के दोनों आयोगों के निष्कर्षों पर उठने वाले सन्देहों तथा (उन रिपोर्टों में दर्ज) गवाहों के विरोधाभासी बयानों के मद्देनजर सरकार के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल है कि वे निर्णय अन्तिम हैं। प्रधानमंत्री जी का यह आधिकारिक बयान अदालत में चला जाता है और वर्षों बाद (30 अप्रैल, 1998 को) कोलकाता उच्च न्यायालय सरकार को आदेश देता है कि उन अभिलेखों के प्रकाश में फिर से इस मामले की जाँच करवायी जाए। दो-दो जाँच आयोगों का हवाला देकर सरकार इस मामले से पीछा छुड़ाना चाह रही थी, मगर न्यायालय के आदेश के बाद सरकार को तीसरे आयोग के गठन को मंजूरी देनी पड़ती है। इस बार सरकार को मौका न देते हुए आयोग के अध्यक्ष के रुप में अवकाशप्राप्त न्यायाधीश “मनोज कुमार मुखर्जी” की नियुक्ति खुद सर्वोच्च न्यायालय ही कर देता है।
जहाँ तक हो पाता है, सरकार मुखर्जी आयोग के गठन और उनकी जाँच में रोड़े अटकाने की कोशिश करती है, मगर जस्टिस मुखर्जी जीवट वाले व्यक्ति होते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी वे जाँच को आगे बढ़ाते रहते हैं। आयोग सरकार से उन दस्तावेजों (“टॉप सीक्रेट” पी.एम.ओ. फाईल 2/64/78-पी.एम.) की माँग करता है, जिनके आधार पर 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया था और जिनके आधार पर कोलकाता उच्च न्यायालय ने तीसरे जाँच-आयोग के गठन का आदेश दिया था। प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय दोनों साफ मुकर जाते हैं कि – ऐसे कोई दस्तावेज नहीं हैं, होंगे भी तो हवा में गायब हो गये!
आप विश्वास नहीं करेंगे कि जो दस्तावेज खोसला आयोग को दिये गये थे, वे दस्तावेज तक मुखर्जी आयोग को देखने नहीं दिये जाते, ‘गोपनीय’ एवं ‘अति गोपनीय’ दस्तावेजों की बात तो छोड़ ही दीजिये। प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, सभी जगह से नौकरशाहों का यही एक जवाब-
“भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को आयोग को नहीं दिखाने का “प्रिविलेज” उन्हें प्राप्त है!”भारत सरकार के रवैये के विपरीत ताईवान सरकार मुखर्जी आयोग द्वारा माँगे गये एक-एक दस्तावेज को आयोग के सामने प्रस्तुत करती है। चूँकि ताईवान के साथ भारत के कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं थे, इसलिए भारत सरकार किसी प्रकार का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दवाब ताईवान सरकार पर नहीं डाल पाती है।
हाँ लेकिन, रूस के मामले में ऐसा नहीं है। भारत का रूस के साथ गहरा सम्बन्ध है, अतः रूस सरकार का स्पष्ट मत है कि जब तक भारत सरकार आधिकारिक रुप से अनुरोध नहीं भेजती, वह आयोग को न तो नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेज देखने दे सकती है और न ही कुजनेत्स, क्लाश्निकोव- जैसे महत्वपूर्ण गवाहों का साक्षात्कार लेने दे सकती है।
आप अनुमान लगा सकते हैं- आयोग रूस से खाली हाथ लौटता है। यह भी जिक्र करना प्रासंगिक होगा कि मुखर्जी आयोग जहाँ “गुमनामी बाबा” के मामले में गम्भीर तरीके से जाँच करता है, वहीं “स्वामी शारदानन्द” के मामले में गम्भीरता नहीं दिखाता। आयोग फैजाबाद के राम भवन तक तो आता है, जहाँ गुमनामी बाबा रहे थे; मगर राजपुर रोड की उस कोठी तक नहीं जाता, जहाँ शारदानन्द रहे थे। आयोग गुमनामी बाबा की हर वस्तु की जाँच करता है, मगर उ.प्र. पुलिस/प्रशासन से शारदानन्द के अन्तिम संस्कार के छायाचित्र माँगने का कष्ट नहीं उठाता।
मई’ 64 के बाद जब स्वामी शारदानन्द सतपुरा (महाराष्ट्र) के मेलघाट के जंगलों में अज्ञातवास गुजारते हैं, तब उनके साथ सम्पर्क में रहे डॉ. सुरेश पाध्ये का कहना है कि उन्होंने खुद नेताजी (स्वामी शारदानन्द) और उनके परिवारजनों तथा वकील के कहने के कारण (1971 में) ‘खोसला आयोग’ के सामने सच्चाई का बयान नहीं किया था। क्योंकि अब स्वामीजी का देहावसान हो चुका था, इसलिए वे (26 जून 2003 को) मुखर्जी आयोग को सच्चाई बताते हैं। मगर आयोग उनकी तीन दिनों की गवाही को (अपनी रिपोर्ट में) आधे वाक्य में समेट देता है और दस्तावेजों को (जो कि वजन में ही 70 किलो है) एकदम नजरअन्दाज कर देता है। यह सब कुछ किसके दवाब में किया जाता है? यह राज तो आने वाले समय में ही खुलेगा ।
8 नवम्बर 2005 को आयोग अपनी रपट सरकार को सौंप देता है। सरकार इस पर कुण्डली मारकर बैठ जाती है। दवाब पड़ने पर 18 मई 2006 को रपट को संसद के पटल पर रखा जाता है।
मुखर्जी आयोग को पाँच विन्दुओं पर जाँच करना था :-
- नेताजी जीवित हैं या मृत ?
- अगर वे जीवित नहीं हैं, तो क्या उनकी मृत्यु विमान-दुर्घटना में हुई, जैसा कि बताया जाता है ?
- क्या जापान के रेन्कोजी मन्दिर में रखा अस्थिभस्म नेताजी का है ?
- क्या उनकी मृत्यु कहीं और, किसी और तरीके से हुई, अगर ऐसा है, तो कब और कैसे ?
- अगर वे जीवित हैं, तो अब वे कहाँ हैं?
इन प्रश्नों पर आयोग का निष्कर्ष कहता है कि-
- नेताजी अब जीवित नहीं हैं।
- किसी विमान-दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु नहीं हुई है।
- रेन्कोजी मन्दिर (टोक्यो) में रखा अस्थिभस्म नेताजी का नहीं है।
- उनकी मृत्यु कैसे और कहाँ हुई- इसका जवाब आयोग नहीं ढूँढ़ पाया।
- इसका उत्तर तो आप पढ़ ही चुके है।
और सरकार स्वाभाविक रुप से इस रिपोर्ट को खारिज कर देती है। अगर हम यहाँ यह अनुमान लगायें कि भारत सरकार ने “अराजकता” या “राजनीतिक अस्थिरता” फैलने की बात कहकर मुखर्जी आयोग को ‘चौथे’ विन्दु पर ज्यादा आगे न बढ़ने का अनुरोध किया होगा, तो क्या हम बहुत गलत होंगे?
आखिर क्या हुआ होगा नेताजी का…?
स्तालिन के समय में सोवियत संघ में नेताजी का ‘नाम’ भी लेने पर प्रतिबन्ध था। वैसे भी, उन दिनों के सोवियत संघ के ‘लोहे के पर्दों’ (Iron Curtains) के बारे में भला कौन नहीं जानता ! नेताजी 23 अगस्त 1945 से सोवियत संघ में थे और कुछ वर्षों तक याकुतस्क में रहे। इसके बाद क्या हुआ, यह वाकई एक रहस्य है। तो आईये, एक-एक कर उन सभी विकल्पों और सम्भावनाओं पर यहाँ विचार करें कि आखिर नेताजी का क्या हुआ होगा ?
सबसे पहली दो मुख्य सम्भावना:
- नेताजी सोवियत संघ से भारत नहीं लौटे, और…
- नेताजी सोवियत संघ से भारत लौट आये।
पहली सम्भावना :
1. अगर नेताजी भारत नहीं लौटे, तो उनके साथ क्या हुआ?
- क) क्या स्तालिन ने नेताजी की हत्या करवा दी? 1948 तक स्तालिन कोशिश करते हैं कि नेताजी ससम्मान भारत लौट जायें, मगर भारत सरकार नेताजी को स्वीकार करने से मना कर देती है। इस पर हो सकता है कि कुछ समय बाद स्तालिन ने नेताजी की हत्या करवा दी हो। स्तालिन ने बहुतों की हत्या करवाई है। उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। उन्हें जानने वाले उन्हें हिटलर से भी ज्यादा निर्दय और निष्ठुर बताते हैं।
- ख) क्या नेताजी को ब्रिटेन को सौंप दिया गया? इस विकल्प पर विचार करने के लिए हमें जरा पीछे चलना होगा। जर्मनी 1942 में लाल सेना के जेनरल वाल्शोव को युद्धबन्दी बनाता है। बाद में ये वाल्शोव जर्मनी में करीब दो लाख सैनिकों की एक सेना गठित करते हैं और लाल सेना के ही सैनिकों से सोवियत संघ में स्तालिन का तख्ता पलटने का आव्हान करते हैं। विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद ये वाल्शोव ब्रिटिश सेना के हाथ लगते हैं। 1948 में वाल्शोव को उनके आदमियों सहित सोवियत संघ प्रत्यर्पित कर दिया जाता है और स्तालिन वाल्शोव तथा उनके ज्यादातर लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। क्या अपने दुश्मन वाल्शोव को पाने के लिए स्तालिन ने ब्रिटेन के साथ नेताजी का सौदा कर लिया?
- ग) क्या बलूचिस्तान-ईरान सीमा पर नेताजी की हत्या की गयी? पिछले विकल्प की अगली कड़ी। लॉर्ड माउण्टबेटन और वावेल नेताजी को ‘मौके पर मार देने’ के हिमायती हैं- बिना मुकदमा चलाये, बिना किसी प्रचार के। अतः अगर ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने स्तालिन से नेताजी को (वाल्शोव के बदले) हासिल कर लिया, तो क्या उन अधिकारियों ने चुपचाप नेताजी की हत्या कर दी? ऐसी खबरें हैं कि कुछ लोगों ने 1948 में क्वेटा में नेताजी को देखा था- ब्रिटिश सैन्य अधिकारी उन्हें बन्दी बनाकर कार में बलूचिस्तान-ईरान सीमा के ‘नो-मेन्स लैण्ड’ की ओर ले जा रहे थे।
- घ) क्या नेताजी साइबेरिया जेल में परिपक्व उम्र में मृत्यु को प्राप्त हुए? ऐसा भी हो सकता है कि नेताजी ने परिपक्व उम्र में साइबेरिया के याकुत्स्क शहर की जेल की एक कोठरी में अपनी अन्तिम साँस ली हो। (नेताजी का जन्म 1897 में हुआ था- परिपक्व उम्र का अनुमान आप लगा सकते हैं।) लेकिन एक तथ्य यह भी है, जिसे उपर्युक्त विकल्पों के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है। इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
यह तथ्य है- नेताजी ने ‘खाली हाथ’ सोवियत संघ में प्रवेश नहीं किया था, बल्कि उनके साथ ‘बड़ी मात्रा में सोने की छड़ें और सोने के आभूषण’ थे। (नेहरूजी को सन्देश भेजने वाले सूत्र के कथन थे कि- ‘…उनके साथ बड़ी मात्रा में सोने की छड़ें और गहने थे…’। ऐसे भी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि “आजाद हिन्द बैंक” का सोना तीन-चार ट्रंकों में तो रखा ही होगा और उनमें से एक ट्रंक नेताजी के साथ ही सोवियत संघ तक गया होगा।) इस एक ट्रंक सोने के बदले में अनुमान लगाया जा सकता है कि सोवियत संघ में न तो नेताजी हत्या हुई होगी, न उन्हें ब्रिटेन के हाथों सौंपा गया होगा, और न ही उन्होंने अपना सारा जीवन साइबेरिया की जेल में बिताया होगा। और यदि उन्होंने भारत आना चाहा होगा और रूसियों को इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
दूसरी सम्भावना यह है कि :-
नेताजी भारत लौट आये। नेताजी भारत लौटे…! मगर कब?
क्या स्टालिन की ही अवधि में? इसकी सम्भावना कम नजर आती है। उन दिनों भारत और सोवियत संघ के बीच या या फिर यूं कहें कि नेहरू जी और स्तालिन के बीच सम्बन्ध इतने घनिष्ठ तो नहीं ही थे कि नेताजी पर किसी समझौते की गुंजाईश बने। (नेहरू जी के प्रधानमंत्री बनने पर स्टालिन कोई प्रसन्नता जाहिर नहीं करते हैं न ही वे (भारत की राजदूत) विजयलक्ष्मी पण्डित को मिलने का समय देते हैं।) मार्च 1953 में स्टालिन की मृत्यु हो जाती है और उनके द्वारा 1955 में साइबेरिया की जेलों में बन्दी बनाये गये लोगों के ‘पुनर्वास’ का कार्यक्रम शुरु होता है। तब तो हो सकता है कि, ‘नेताजी’ के भी ‘पुनर्वास’ का प्रश्न तब उठा होगा। संभव है कि ‘पुनर्वास’ के लिए नेताजी ने भारत आना चाहा होगा। लेकिन उधर नेहरूजी ‘अराजकता’ फैलने के खतरों के कारण नहीं चाहते कि नेताजी भारत आयें। ऐसे में, सोवियत राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव ने मध्यस्थता की होगी। फैसला यही हुआ होगा कि नेताजी भारत में ही अपना जीवन गुजारेंगे, मगर ‘अप्रकट’ रहकर, जिससे कि देश में किसी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा न हो। ‘अराजकता’ या ‘राजनीतिक अस्थिरता’ के अलावे कुछ अन्य बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है: अगर नेताजी ‘प्रकट’ हो जाते हैं, तो….
1. कर्नल हबिबुर्रहमान सहित उनके दर्जनों सहयोगी और जापान देश दुनिया के सामने झूठा साबित हो जाता है।
2. उन्हें ब्रिटिश-अमेरीकी हाथों से बचाने के लिए किये गये सारे प्रयासों पर पानी फिर जाता है।
वैसे, ‘अप्रकट’ रहने के कारण चाहे जितने भी हों, मगर इतना है कि “1941 का जियाउद्दीन”, “1941-42 का काउण्ट ऑरलैण्डो माजोत्ता”, “1943 का मस्तुदा” और “1945 के खिल्सायी मलंग” ने अन्तिम बार के लिए एक और छद्म नाम और रूप धारण किया हो… और सोवियत संघ से भारत में प्रवेश किया हो…?
भारत माँ के सबसे बहादूर सपूतों में से एक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आधी दुनिया का चक्कर लगाकर, कई वर्षों का वनवास और अज्ञातवास काटकर माँ की गोद में लौटे हों ! कोई माने या न माने, मगर नेताजी अपनी मातृभूमि की आँचल में अपना शेष जीवन बिताने जरूर लौटे होंगे! अब लाख टके की बात यह है कि इस अन्तिम बार के लिए नेताजी कौन-सा नाम और रूप धारण करते हैं ?
गुमनामी बाबा (भगवान जी)

1950 के दशक में ‘दशनामी’ सम्प्रदाय के एक सन्यासी नेपाल के रास्ते भारत में प्रवेश करते हैं। नीमशहर और बस्ती में वे अपना एकाकी जीवन बिताते हैं। सब लोग उन्हें ‘भगवान जी’ के नाम से जानते है। कहा जाता था कि नेताजी को पहले से जानने वाले कुछ लोग- जैसे उनके कुछ रिश्तेदार, कुछ शुभचिन्तक, कुछ स्वतंत्रता सेनानी और कुछ आजाद हिन्द फौज के अधिकारी उनसे गुप-चुप मिलते रहते थे। विशेषकर 23 जनवरी और दुर्गापूजा के दिन मिलने-जुलने वालों की संख्या बढ़ जाती थी। फिर संभव है कि पहचान खुलने के भय से अथवा कुछ तंगी के कारण 1983 में 86 वर्ष की अवस्था में वे पुरानी जगह बदल कर फैजाबाद (अयोध्या) आ जाते हैं।
सन 1975 में उनके भक्त बने डॉ. आर.पी. मिश्रा ‘रामभवन’ में उनके लिए दो कमरे किराये पर लेते हैं। यहाँ भगवान जी एकान्त में रहते हैं, पर्दे के पीछे से ही लोगों से बातचीत करते हैं और रात के अन्धेरे में ही उन्हें जानने वाले उनसे मिलने आते हैं।
यहाँ तक कि उनके मकान-मालिक गुरुबसन्त सिंह भी दो वर्षों में सामने से उनका चेहरा नहीं देख पाते हैं।
उनकी देखभाल के लिए सरस्वती देवी अपने बेटे राजकुमार मिश्रा के साथ रहती हैंl
भगवान जी इतने गोपनीय ढंग से रहते हैं कि उन्हें “गुमनामी बाबा” का नाम मिल जाता है अर्थात जो गुमनाम ही रहना चाहता हो! 16 सितम्बर 1985 को गुमनामी बाबा का देहान्त होता है। 18 सितम्बर को उनके भक्तजन आदरपूर्वक उनका पार्थिव शरीर तिरंगे में लपेटकर सरयू तट के गुप्तार घाट पर ले जाते हैं और तेरह लोगों की उपस्थिति में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया जाता है। इसके बाद खबर जोर पकड़ती है कि है कि गुमनामी बाबा नेताजी थे।
‘दशनामी सन्यासी’ उर्फ ‘भगवान जी’ उर्फ ‘गुमनामी बाबा’ को नेताजी मानने के पीछे कारण हैं: –
- उनकी कद-काठी, बोल-चाल इत्यादि नेताजी जैसा होना !
- कम-से-कम चार मौकों पर उनका यह स्वीकार करना कि वे नेताजी हैं !
- उनके सामान में नेताजी के पारिवारिक तस्वीरों का पाया जाना !
- नेताजी के करीबी रहे लोगों से उनकी घनिष्ठता तथा पत्र-व्यवहार !
- बात-चीत में उनका जर्मनी आदि देशों की चर्चा करना इत्यादि !
गुमनामी बाबा की मृत्यु के उपरांत उनके सामान को प्रशासन नीलाम करने जा रहा था। तो ललिता बोस, एम.ए. हलीम और विश्वबन्धु तिवारी कोर्ट गये, तब जाकर (अदालत के आदेश पर) मार्च’ 86 से सितम्बर’ 87 के बीच उनके सामान को 24 ट्रंकों में सील किया गया। 26 नवम्बर 2001 को इन ट्रंकों के सील मुखर्जी आयोग के सामने खोले जाते हैं और इनमें बंद 2,600 से भी अधिक चीजों की जाँच की जाती है।
पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त इन चीजों में नामी-गिरामी लोगों जैसे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के “गुरूजी”, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल के पत्र, नेताजी से जुड़े समाचारों एवं लेखों के कतरन, रोलेक्स और ओमेगा की दो कलाई-घड़ियाँ (कहते हैं कि ऐसी ही घड़ियाँ नेताजी पहनते थे), जर्मन (16 गुणा 56) दूरबीन, इंगलिश (कोरोना एम्पायर) टाईपराइटर, कुछ पारिवारिक छायाचित्र, हाथी दाँत का (टूटा हुआ) स्मोकिंग पाईप इत्यादी थे । यहाँ तक कि नेताजी के बड़े भाई सुरेश बोस को खोसला आयोग द्वारा भेजे गये सम्मन की मूल प्रति भी थी ।
अपनी रिपोर्ट में श्री मनोज कुमार मुखर्जी तीन कारणों से ‘गुमनामी बाबा’ को ‘नेताजी’ घोषित नहीं करते क्योंकि :-
- बाबा को करीब से जानने वाले लोग स्वर्गवासी हो चुके हैं, अतः वे गवाही के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते ।
- बाबा का कोई छायाचित्र उपलब्ध नहीं है, और…
- सरकारी फोरेंसिक लैब ने उनके ‘हस्तलेख’ और ‘दाँतों’ की डी.एन.ए. जाँच का रिपोर्ट ऋणात्मक दिया है।
ये दाँत एक माचिस की डिबिया में रखे पाये गये थे। मुखर्जी आयोग ने नेताजी के परिजनों से नमूने लेकर इन दाँतों का डी.एन.ए. टेस्ट करवाया था परिणाम यही आया कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं हैं। गुमनामी बाबा के हाथ की लिखावट का मिलान भी नेताजी की लिखावट से करवाया गया था इसका परिणाम भी विशेषज्ञों ने ऋणात्मक दिया।
यहाँ जिज्ञासु प्रवृत्ति वालों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि अगर गुमनामी बाबा दाँतों की डी.एन.ए. जाँच की रिपोर्ट में नेताजी नहीं हैं, तो फिर वे कौन हैं और क्यों प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वे यह आभास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे नेताजी हैं? इस प्रश्न के उत्तर में दो संभावनाएं नजर आती हैं :-
- या तो वे एक सामान्य सन्यासी हैं, जिनकी कद-काठी, उम्र इत्यादि नेताजी के समान है। वे इनका फायदा उठा रहे हैं। ऐसे में, उनके पास जो सामान पाये गये, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि इन्हें उनके भक्तों ने उन तक पहुँचाये होंगे, जो जाने-अनजाने में उन्हें श्रद्धा-भाव से नेताजी मानते थे।
- या फिर, उन्हें भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने मई’ 64 के बाद खड़ा किया है- ताकि लोगों का ध्यान “स्वामी शारदानन्द” (अगले अनुच्छेद में) की ओर न जाये। या फिर लोग ‘ये असली नेताजी हैं’ या ‘वे असली नेताजी हैं’ के झगड़े में उलझे रहें और सरकार चैन की साँस लेती रहे। ऐसे में और स्वयं गुप्तचर विभाग ने उन तक ये सामान पहुँचाये होंगे।
अब तक हमने भी नेताजी की मानसिक बुनावट तथा व्यक्तित्व को जितना समझा है, उससे यही लगता है कि एकबार “सन्यास” धारण करने के बाद नेताजी न तो अपने पारिवारिक छायाचित्रों के मोह से बँधे रहेंगे, न अपने से सम्बन्धित पुस्तकों, लेखों, समाचारों का संकलन करेंगे, और न ही कभी किसी के सामने अपनी पहचान व्यक्त करेंगे! रही बात नेताजी के टाईपराईटर और दूरबीन की, तो उनकी ये चीजें या तो 51, युनिवर्सिटी एवेन्यू, रंगून वाले मुख्यालय में रह गयी होंगी; या सिंगापुर मुख्यालय में: या फिर, याकुत्स्क शहर (साईबेरिया) की जेल की कोठरी नम्बर 465 में।
(प्रसंगवश: उनकी एक कुर्सी को रंगून से लाकर ‘लाल किले’ में ससम्मान प्रतिष्ठित किया गया है।) अगर माउण्टबेटन की सेना ने रंगून और सिंगापुर के मुख्यालयों से नेताजी की वस्तुओं को जब्त कर सरकारी खजाने में पहुँचा दिया होगा, तो वहाँ से इन दोनों चीजों को निकालकर गुमनामी बाबा तक पहुँचाना बेशक गुप्तचर विभाग के ही बस की बात है। या, बिलकुल उन जैसी चीजों की व्यवस्था करना भी उन्हीं से सम्भव है।
स्वामी शारदानन्द

29 सितम्बर 1961 को एक शिक्षक श्री राधेश्याम जायसवाल पत्र लिखकर नेहरूजी को सूचित करते हैं कि सिलहट के पास शौलमारी आश्रम के साधू की गतिविधियाँ सन्देहास्पद हैं। वे चैन-स्मोकर हैं- आयातित सिगरेट पीते हैं, रूसी, चीनी, जर्मन इत्यादि भाषाओं के जानकार हैं और उनके आश्रम के आस-पास ऐसी अफवाह है कि वे नेताजी हैं। श्री जायसवाल को सन्देह था कि आश्रम में कोई विदेशी षड्यंत्र चल रहा है।
आश्रम के साधू हैं – स्वामी शारदानन्द…. नेताजी के लालन-पालन में उनकी माँ के अतिरिक्त जिन महिला का हाथ रहा है, उनका नाम ‘शारदा’ था। साल-डेढ़ साल पहले कूच बिहार जिले (पश्चिम बंगाल) के फालाकाटा में उन्होंने शौलमारी आश्रम की स्थापना की थी । गुप्तचर विभाग वाले आश्रम की गतिविधियों की जाँच करते हैं और अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि वहाँ कुछ गलत नहीं है। दिल्ली के ‘वीर अर्जुन’ दैनिक में खबर छपती है और नेताजी के प्रशंसक और आजाद हिन्द फौज वाले आश्रम पहुँचने लगते हैं।
आजाद हिन्द के फौजी जब आश्रम से बाहर आते हैं, तब उनके होंठ सिले होते हैं। सिर्फ एक मेजर सत्यप्रकाश गुप्ता कोलकाता में (फरवरी’ 62 में) प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर घोषणा करते हैं कि स्वामी शारदानन्द ही नेताजी हैं और इस बीच श्री उत्तम चन्द मल्होत्रा भी 30-31 जुलाई 1962 को स्वामी शारदानन्द से मिलते हैं और मिलने के बाद दावा करते हैं कि उन्होंने पहचान लिया है आश्रम के सन्यासी “स्वामी शारदानन्द” और कोई नहीं, बल्कि नेताजी हैं! उत्तम चन्द मल्होत्रा वे व्यक्ति हैं, जिनके साथ एक ही कमरे में नेताजी ने 46 दिन बिताये थे- काबुल में, जब नेताजी “जियाउद्दीन” का भेष धारण कर यूरोप जाने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी तरफ ब्रिटिश जासूस उनकी जान के पीछे पड़े थे।

27 मई 1964 के दिन स्वामी शारदानन्द नेहरू जी की अन्तिम यात्रा में शामिल होने दिल्ली आते हैं।
नेहरूजी के पार्थिव शरीर के पास खड़े मुद्रा में उनकी तस्वीर मुम्बई से प्रकाशित होने वाले दमदार साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में छप जाती है और इसके बाद स्वामी जी से सम्बंधित सभी समाचारों प्रकाश में आने से रोक दिया जाता हैl
दिल्ली में 5 दिनों के लिए श्रीमती नयनतारा सहगल ने ही उन्हें अपने घर में रखा था। अर्थात नेताजी के साथ उनका एक तरह से पारिवारिक रिश्ता पहले से ही है। यहाँ स्वामी शारदानन्द जी शान्ति से अपना जीवन गुजारते थे। लोगों से उनकी बात-चीत नहीं के बराबर होती थी। उनके पास कोई सामान नहीं था । फर्नीचर के नाम पर सिर्फ एक कुर्सी ही थी । प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से वे यह आभास दिलाने की कोशिश नहीं करते थे कि वे नेताजी हैं। कहा जाता है कि स्वामी शारदानन्द ने 110 दिनों की समाधि ली थी और 93वें दिन उनकी गर्दन के पीछे रक्त की एक बूँद शरीर से बाहर आती है और इस प्रकार 13 अप्रैल 1977 को वे देह त्याग देते हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस एवं प्रशासन के संरक्षण में स्वामी शारदानन्द जी का अन्तिम संस्कार ऋषिकेष में गंगा किनारे हुआ ।
श्री अजमेर सिंह रन्धावा, जो कि इस अन्तिम संस्कार के एक प्रत्यक्षदर्शी रहे थे, उनका कहना था कि स्वामी शारदानन्द के पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेट कर दस दिनों तक जनता के दर्शनार्थ रखा गया था और उनका अन्तिम संस्कार बन्दूकों की सलामी सहित पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ हुआ था।
उनके अनुसार, बहुत-से गणमान्य लोगों के अतिरिक्त श्री उत्तम चन्द मल्होत्रा तथा नेताजी की एक भतीजी अपने बेटे के साथ यहाँ आयीं थीं- अन्तिम दर्शनों के लिए।
श्री रन्धावा एक रोचक बात की जानकारी देते हैं। जब कभी श्री रन्धावा की टैक्सी स्वामी जी के लिए मँगवायी जाती थी, एक नौकर पहले एक बाल्टी पानी लाकर टैक्सी के अन्दर-बाहर पोंछा लगाता था, तब जाकर स्वामी जी टैक्सी में बैठते थे। बाल्टी के पानी में कुछ कटे हुए निम्बू तैरते रहते थे। तब श्री रन्धावा स्वामी जी को एक सामान्य सन्यासी तथा इस ‘निम्बू-पानी’ को एक टोटका समझते थे। स्वामी जी के देह त्यागने के बाद जब उनके ‘नेताजी’ होने की भनक उन्हें मिली, तब जाकर उन्हें ‘नीम्बू-पानी’ का रहस्य समझ में आया- नीम्बू का अम्ल (एसिटिक एसिड) उँगलियों की छाप (फिंगरप्रिण्ट) लेने वाले पाउडर को नाकाम कर देता है !
डॉ. सुरेश पाध्ये, जो पिछले प्रायः दस वर्षों से स्वामीजी के सान्निध्य में थे, का कहना है कि उन्होंने छायाकार श्री एस. जोगी के माध्यम से अन्तिम संस्कार के फोटो खिंचवाये थे, जिन्हें निगेटिव सहित तत्कालीन पुलिस कप्तान (एस.पी.) जोशी ने जब्त कर लिया था ।
स्वामी शारदानन्द के अस्थिभस्म को गंगाजी में प्रवाहित करते हुए उनके सचिव डॉ. रमनी रंजन दास “नेताजी” कहकर उन्हें अन्तिम श्रद्धाँजली देते हैं। पीछे खड़े पुलिस अधिकारी इन्दरपाल सिंह चौंक पड़ते हैं- “अरे अब तक तो आप यही कहते आ रहे थे कि ये साधू नेताजी नहीं हैं ?”
Salute to neta ji Subhash Chandra Bose